सूफ़िज्म के महान व्यक्तियों ने जो धार्मिक आंदोलन चलाया वह सभी तरह के दुराव मिटाने की क्षमता रखता है। यहां मैं अमीर खुसरो को याद किए बिना नही रह सकता है और न ही उनके महान गुरू निज़ामुद्दीन औलिया को।
जरा इस राह पर चल कर देखे कुछ दूर………………
बागेवफ़ा ब्लाग पर श्रीमान मोहम्मद अली वफ़ा के हवाले से श्रीमान अज़ीज़ बर्नी के विचार पढ़े तो मन हुआ बात को आगे बढ़ाया जाय!
जिसमें बंकिम चन्द चटर्जी के उपन्यास आनन्द मठ का हवाला देकर मुसलमान बन्दे मातरम न गाये इसके लिए तमाम तर्क भी उद्धत किए गये। और बताया गया कि हिन्दुओं यानी सनातन धर्मियों की यह लड़ाई मुसलमानों के विरूद्ध थी न कि अंग्रेजों के।
शासक चाहे मुसलमान, हिन्दू या अंग्रेज़ कोई हो यदि वह दुष्ट है तो उसकी भर्त्सना अवश्य करनी चाहिए और उसे उखाड़ भी फ़ेकना चाहिए यदि कौमों में कूबत हो तो। और ऐसा ही एक प्रयास हुआ था बंगाल में अत्याचारी मुसलमान शासकों के खिलाफ़ जिसका दुख कुछ मुसलमानों को आज भी है।
आखिर क्यो ये भारतीय समाज के मुसलमान अपने आप को जीती हुई कौमें और हिन्दुओं को हारी हुई कौमें मानने पर आमादा है। और वे आज भी लोकतान्त्रिक सत्ता में किसी हिन्दू को शासन करते देख अपने जबरदस्ती के कथित अतीत को याद कर स्वंम को शासक कौमं का नुमाइन्दा मान बैठते है और मौजूदा समय में ये सपना भी देखते है कि सत्ता हमारे हाथों में हो……….आखिर ऐसा क्यों है।
तमाम उर्दू शायरों की शायरी में मुझे ये टीस सुनाई देती है और मुझे हंसी आती है जब मैं उस शायर के एक गरीब हिन्दुस्तानी मुसलमान के घर का वारिस पाता हूं जिसके बाप-दादाओं ने इन विदेशी मुस्लिम शासकों के तमाम अत्याचार सहे होते है, किन्तु कुछ पढ़ लिख जाने से वह भारतीय समाज़ का बेटा अपनी नसों में जबरदस्ती मोहम्मद गौरी, गज़नवी और औरंगजेब का खून इन्जेक्ट करता हुआ दिखाई पड़ता है। क्यों न करे वो ऐसा भाई सभी शाही खून के वारिस बनना चाहते है।….
आज ये आंतकवादी कुछ उन्ही मुस्लिम आंक्रान्ताओं की तरह है जो कभी तलवार के दम पर और धर्म की ढ़ाल की बदौलत लूट-पाट मचाते थे, अब ये लोग ए०के०४७ से लैस होकर धार्मिक जेहाद कर रहे है और परिणाम स्वरूप हर गली-कूचे में मार गिराए जाते है, अपनी इन कारगुजारियों की बदौलत इन धार्मिक सेनानियों ने उन देशों और उन कौमॊ का क्या हाल किया है यह जग जाहिर है।
ईसाई, बौद्ध, हिन्दू, और यहूदी सभी का विकास देखते हुए किस विकास की राह पर है ये लोग और अभी तक कौन सा मुकाम हासिल कर पाए हैं।
बागे वफ़ा के लेखक और समाज़ के तमाम मुसलमानों की अमेरिका विरोधी मानसिकता सिर्फ़ इस लिए बनाई गयी है कुछ बीमार मनोदशा के लोगों द्वारा क्यों कि अमेरिका आंतकवाद के विरूद्ध है और वह आंतकवादी मुसलमान है!
आम आदमी को उनके अधिकार ब्रिटिश हूकूमत में ही मिलना शुरू हुए………….नही तो ये हिन्दू राजा और खानाबदोश मुसलमान शासको ने मुल्क का बेड़ा गर्क कर दिया था
एक कहानी, लेखक की अपनी भावना, तमाम ऐसी भी किताबे है जिसमे हिन्दुओं को काटने-मारने की बात लिखी तो क्या हम उसे सर्वमान्य ्मान ले! खैर ये सब फ़िजूल की बाते है, दुर्दान्त मुस्लिम आक्रमणकारियों ने इस देश को लूटा और यहां के लोगों की अस्मिता को, विदेशी लुटेरे…आप की सहानभूति उनसे हो सकती है क्योंकि वो मुसलमान थे किन्तु आप के बुजर्गों पर जिनकी रंगों में भारत का रक्त था, जबरदस्ती थोपा गया ये धर्म …………. या स्वेच्छा से……….अंग्रेजो ने व्यापार तो अवश्य किया पर एक अच्छी व्यवस्था लागू की एक शासन प्रणाली उन्होनें न तो घर उजाड़े, न आग लगाई और न ही इज्जत लूटी………..और न ही मन्दिर तोड़े, जजिया जैसा कर भी नही लगाया उन्होंने।
और हिन्दू – मुस्लिम राजाओ के अत्याचार छुटकारा दिलाया, इन राजाओं ने हमेशा हमारी गरीब जनता का शोषण किया चाहे वह हिन्दू हो या फ़िर मुसलमान………..
बात किताब में क्या हैं और वह किस परिप्रेक्ष्य में लिखी गयी इस बात से मतलब नही कुछ अच्छी और कर्ण प्रिय बाते निकाल ली गयी, अब उसे हिन्दू ने कहा-गाया या मुसलमान………इससे कोई फ़र्क नहीनही तो अल्लामा इकबाल की नज़्मों हम इतना पसन्द करते है खासतौर से सारे जहां से अच्छा……….यदि हन इसकी कुछ लाइनों पर गौर करे तो ये सारे भारत की कौमों का प्रतिनिधत्व नही करती, सिर्फ़ मुसलमानों का करती है…..
ऐ आबे रौदे गंगा ! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा
काल और परिस्थित के अनुसार मायने बदलते है, हमें चीज़ों को अपने मुताबुक ढ़ालना चाहिए, न कि लेखक की व्यक्तिगत भावना पर।
ऐसे तो फ़िर हमें राष्ट्रगान के प्रति भी सोचना चाहिए क्योंकि उसके गाने और लिखने का पर्याय भी कुछ और था, यदि कोई अच्छी बात किसी बुरे मकसद या प्रतिकूल हालातों में कही गयी हो तो क्या उसे अपनाना नही चाहिए।
यदि ईश गीत है फ़िर वह अल्लाह के लिए गाया गया हो या भगवान के लिए, बागे वफ़ा के ब्लागर के लेख में बन्देमातरम को काली की स्तुति का गीत बताया गया है, भाई मां हमारी हों या आप की मां तो मां होती है।
गलत बात की कुतर्कों व इतिहास के तर्कों के साथ समन्वय स्थापित कर पैरोकारी करना निहायत निन्दनीय है।
आ ज इस्लाम जैसा पाक शब्द आंतकवाद जैसे नापाप शब्द के प्रीफ़िक्स के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है आखिर क्यों। क्योंकि उन खानाबदोश कबीलों ने रोज़ी-रोटी और धन के लिए जिन तलवारों से भारत के रज्जुल्लों को हराया, या उनसे सन्धि कर ली । जिन राजाओं की सेना सिर्फ़ उनकी नौकर होती थी, न कि राज्य या राष्ट्र भावना से ओत-प्रोत, उन्हे हराकर भारतीयों को हारी हुई कौम मान लेना कहां तक उचित है । जबकि भारत की कौंमें चाहे वह हिन्दू हो मुसलमान हो या बौद्ध, वे गांधी केआंदोलन के अतिरिक्त कभी भी किसी आंदोलन या क्रान्ति का हिस्सा नही बनी, यहां तक की १८५७ ईस्वी की कथित क्रान्ति में भी। अभी शशि शेखर जी ने अपने एक संपादकीय में भारत के सभी हिन्दुओं को आर एस एस और भा ज पा की जागीर बताते हुए “हारी हुई कौमें” करार कर दिया इसका मुझे अफ़सोस है और उनके लेखन व मनोदशा पर भी।
हमारे गांव के सभी मुसलमान काका, चाचा और दादा किसी भी आंतकवादी संगठन को नही जानते और न ही वह रेडियों तेहरान, बगदाद या कराची सुनते है। और न तो वह इस्लाम के प्रसार-प्रचार या कट्टरता की बात करते है, वे सिर्फ़ अपने खेतों की, मवेशियों की, गांव की और अपने सुख व दुख की बात करते है। वो गंगा स्नान भी जाते है और धार्मिक आयोजनों में भी शरीक होते है, और ऐसा हिन्दू भी करते है, हम तज़ियाओं में शामिल होते है, उनके हर उतसव में भी और उनके पूज्यनीय मज़ारों पर भी फ़ूल चढ़ाते है। यकीन मानिए ये सब करते वक्त हम दोनों कौमों के किसी भी व्यक्ति को ये एहसास नही होता कि हम अलाहिदा कौमों से है और यही सत्य भी है। हमारे पूर्वज एक, भाषा एक, घर एक, गांव एक और एक धरती से है, जो हमारा पोषण करती है।
इसलिए मेरा अनुरोध है इन दोनों कौमों के कथित व स्वंभू लम्बरदारों से कि कृपया जहरीली बातें न करे और गन्दे इतिहास की भी नही जो हमारा नही था । सिर्फ़ चन्द अय्यास राजाओं और नवाबों और धार्मिक बेवकूफ़ों का था वह अतीत जिसके बावत वो अपनी इबारते लिखवाते थे और कुछ बेवकूफ़ इतिहासकार उसी इतिहास के कुछ पन्नों की नकल कर अपनी व्यथित और बीमार मनोदशा के तमाम तर्क देकर समाज़ में स्थापित होना चाहते है।
कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन
भारतवर्ष
दिसम्बर 26, 2009 at 5:39 अपराह्न
धन्य हैं मिश्र जी…
जनवरी 3, 2010 at 8:00 अपराह्न
Thankyou Mishra Ji
जनवरी 5, 2010 at 8:54 अपराह्न
A brilliant article Krishna ji.Keep it up.I appreciate your take on the whole issue.Unfortunately,a large section of Muslims prefer to follow likes of Zakir Naik than develop faith in words of better souls. Needless to say,they are still guided by herd mentality !!
email: akpandey77@gmail.com
WEBSITE: indowaves.instablogs.com
जनवरी 10, 2010 at 3:28 अपराह्न
brilliant mishra ji aapka article bahut accha laga very good
जून 26, 2010 at 5:08 अपराह्न
बहुत बेबाक तरीके से अपनी बात रखने के लिए साधुवाद !