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संपादक/माडरेटर
फ़रवरी 10, 2010
वन्य जीव संरक्षण व इतिहास का नया न्यूज पोर्टल- दुधवा लाइव
Posted by Krishna Kumar Mishra under अखबार, दुधवा, ब्लाग, लखीमपुर | टैग्स: दुधवा लाइव, पर्यावरण, वन्य जीव, Dudhwa Live, dudhwalive, wildlife |[4] Comments
नवम्बर 15, 2009
एक बार मैं बना बहेलिया
Posted by Krishna Kumar Mishra under History & Environment | टैग्स: जल, तोता, बंजर, बाग, मां, सुआ, bird, british, conservation, gazetteer, groove, hunter, mother, parrot, tamed, water, well, wildlife |[3] Comments
“एक बालक की सुआ पालने की ख्वाइश जो कभी पूरी नही हो सकी“
“क्योँकि आज ये बालक इन परिंदोँ के परोँ को हवा देने की कोशिश कर रहा है जो तड्पते विलखते हुए लोहे के पिँजरोँ मेँ कैद है, क्या आप सब इस मिशन मेँ उसके साथ है”
My first expedition
मेरे जीवन की पहली जंगल यात्रा जो बिल्कुल अलग थी मेरी आज की यात्राओं से….
बात मेरे बचपन की है, मै तकरीबन १० वर्ष का रहा हूंगा, मेरे घर से कुछ दूर पर मेरा बग्गर था जहां पालतू जानवर रहते थे, भैसें, बैल आदि, वैसे तो मेरे बाबा और पिता जी का आना-जाना उस जगह पर लगा रहता था, उस जगह एक झोपड़ी जिसमे जानवरों का खाना यानी भूसा इकट्ठा किया जाता था और बग्गर के प्रांगण में महुआं और आम के वृक्ष थे। उस इलाके में रहने वाले बच्चे मेरे दोस्त थे, दरअसल यह बग्गर दलित बस्ती में था चूंकिं ये गांव के उत्तर-पूर्व में बिल्कुल आबादी के आखिरी छोर पर था तो यहां से दूर-दूर तक फ़ैलें खेत और उनमे लहराती फ़सले एक सुन्दर नज़ारा पेश करती थी!
अक्सर मैं उस बस्ती के बच्चों के साथ खेलता था, और उन बच्चों में तमाम मेरे दोस्त थे, इनमे से एक था फ़कुल्ले इसके पारिवारिक परिवेश में जो होता था उसका असर इस बालक में पूर्ण रूप से परिलक्षित होता था जैसे मछली पकड़ने की विभिन्न कलायें, आदिम रहन सहन, मज़दूरी और प्राकृतिक संसाधनॊं पर पूर्ण निर्भरता! गरीबी इसका मुख्य कारण रही । मै कभी अपने घर से झूठ बोलकर इसके साथ मछली पकड़ने जाया करता था। और इसकी मदद भी करता तालाब के किनारे जलकुम्भी को ऊपर घसीटने में और जल्कुम्भी की जड़ों में फ़ंसी मछलियों को वह इकट्ठा करता।
हांलाकि उस जमानें में वर्ण भेद ज्यादा ही था किन्तु बच्चे कहां किसी भेद को तरजीह देते है । कभी-कभी सोचता हूं सारी दुनिया के लोग बच्चे हो जाये !
एक दिन इसने मुझ से कहा चलो आज तोता (parrot) पकड़ते है और इसने तमाम विधियों का बखान भी किया अपने को एक अनुभवी चिड़ीमार साबित करते हुए, रंग-बिरंगे तोते………..मेरे बालमन में तमाम तोता-मैना की कहानियां कौंध गयी, मन अधीर होने लगा कब हम इस मिशन पर निकलेगे!
दूसरे दिन सुबह हम चले पड़े गांव के पश्चिम में स्थित एक निर्जन वन में जिसे बन्जर कहा जाता था, वृक्ष और झाड़ियों का एक बड़ा झुरूमुट इसे आप अंग्रेजी में Grove कह सकते है। को बंजर कहना एकदम विरोधाभाषी बात है किन्तु बन्जर (non-fertile) इसलिये कहा जाता था कि इस झुरूमुट के आसपास की भूमि बन्जर थी। यह जगह गांव से काफ़ी दूर थी कम से कम हम बच्चो के लिये तो दूर ही थी।
हमने एक रस्सी, अनाज के दानें, एक डलिया और छोटा सा लकड़ी का टुकड़ा जिसे हम किल्ला कहते थे, के साथ, मेरा मित्र अपने तोता पकड़ने के कौशल को महिमामंडित करते हुए चल रहा था, मैं गौर से यह सब बाते सुनते हुए कल्पना लोक में खोया सा था, अब बन्जर पहुंच गये थे हम लोग, एक जगह खुले मैदान में डलिया को लकड़ी के टुकड़े के सहारे ६० अंश के कोण पर खड़ा किया गया और इस ड्ण्डें मे रस्सी बांध कर हम लोग रस्सी के एक सिरे को अपने हाथ में पकड़ कर कुछ दूर पर एक झाड़ी के पीछे बैठ गये इस इन्तजार में कि डलिया के नीचे पड़े अनाज के दाने को जब भी कोई तोता चुगने आयेगा तो हम रस्सी खींच लेंगे और तोता इस डलिया के नीचे बन्द हो जायेगा!
मुझे याद है कि उस जगह टेशू, बेर, बबूल, और तमाम झाड़ियों पर तमाम रंग-बिरंगे तोते आवाजे करते हुए इधर-उधर आ जा रहे थे! कुछ समय बाद तोतो ने हमारे बनाये चक्रव्यूह की तरफ़ आकर्षित होने लगे! एक तोता ज्यों ही डलिया के नीचे आया हमने रस्सी खींच ली पर डलिया के नीचे गिरने से पहले ही वह जमीन से उड़ कर आकाश मे पहुंच चुका था।
ऐसा तकरीबन कई बार हुआ और हर बार हमें लगता अब सफ़लता मिली कि अब…………..
ऐसा होते-होते दोपहर हो गयी और सूरज दक्षिण से पश्चिम की तरफ़ रुख करने लगा, आज मेरे जीवन का पहला दिन था जब मै घर से इतनी दूर अकेले और इतने अधिक समय तक रहा।
जब हम पूरी तरह असफ़ल और निराश हो गये तो घर वापसी का निर्णय हुआ उन यन्त्र-तंत्रों के साथ जो मेरे कुछ काम नही आये थे, प्यास और भूख भी अपना असर दिखाने लगे थे। अभी हम गांव की तरफ़ चलते हुए आधी दूरी भी तय नही कर पाये थे की प्यास ने हमें बेहाल सा कर दिया, रास्ते में एक जामुन की बाग थी और उसमे पीपल के वृक्ष के नीचे एक कुआं जो कि पता नही कितने वर्षों से इस्तेमाल नही किया गया था, यह कुआं मेढ़क व अन्य छोटे जीवों की रिहाइस बन चुका था, प्यास की बेहाली के बावजूद दिमाग अभी भी काम कर रहा था सो हमने एक जुगत भिड़ाई टेशू के पत्तों को झाड़ियों की पतली टहनियों से गूंथ कर कटोरी नुमा दुनका बनाया और तोता पकड़ने वाली रस्सी में बांधकर उस दुनके को कुंए में डाल दिया किस्मत से रस्सी ने जल को छू लिया था किन्तु ऊपर खीचने पर दुनके का अधिकतर पानी छलक जा रहा था । लेकिन प्यासे को पानी कि एक बूंद बहुत ……………कई प्रयासो के बाद हमारे हलक कुछ नम हुए और जीवन शक्ति ने अपनी वापसी करनी शुरू कर दी थी पर प्यास का बुझना जिसे कहते है वैसी स्थित नही बन पाई, खैर अब जब हम सामान्य हुए और घर की तरफ़ चले तो तो दिमाग ये जवाब तलाश रहा था कि मां से क्या कहूंगा कि इतनी देर कहां था मै?
सरपट घर आया और नल से पानी निकाल कर पूरा एक लोटा या उससे अधिक गटक गया और घर के बरामदे में जमीन पर लेट गया क्योकि खाली पेट इतना पानी पीने पर पेट मे दर्द शुरू ए हो गया था ! मां खाना बना रही थी रसोई में उन्होने डाटकर पूछा कि कहा थे ? …………..मेरा जवाब था बग्गर में खेल रहा था, कुछ डाट सुनने के बाद मामला रफ़ा दफ़ा हो गया और मैने उस दिन भरपेट खाना खाया जो मुझे बहुत स्वादिष्ट भी लगा …अब मन और आत्मा दोनो संतृप्त थी।
तोते पकड़ने वाली बात मां को मैने बहुत बाद में बताई शायद कई वर्षों बाद ।
आज मै किसी भी जीव को कैद में नही देखना चाहता यहां तक कि चिड़ियाघरॊं के कान्सेप्ट को पूरी तौर से खारिज़ करता हूं किन्तु बचपन की वह सुआ पालने की इच्छा और किये गये प्रयास आज भी मुझे गुदगुदा जाते हैं।
अब वह बंजर भी नही बचा सिर्फ़ मैदान है वहां अब न तो वहां कोई पुष्प खिलता है और न ही तोते चहचाते है सिर्फ़ हवा का सन्नाटा……………
बंजर अभी कुछ वर्ष पूर्व उस जमीन के मालिक ने कटवा दिया मुझे जानकारी मिली तो वनाधिकारी (DFO) को सूचित किया, अखबार में भी प्रकाशित कराया, वनाधिकारी के कहने पर वह व्यक्ति गिरफ़्तार भी हुआ किन्तु निचले स्तर के अधिकारियों ने पैसे लेकर छोड़ दिया।
अब मेरे बचपन की यह कहानी या खेल अब गांव का कोई दूसरा बच्चा नही दुहरा पायेगा क्यो कि अब वहां कुछ नही बचा है सिवाय बंजर भूमि के वास्तव में अब वह जगह अपने नाम के अनुरूप हुई है.बंजर………सिर्फ़ बंजर ।
खीरी जनपद में तोतों की तमाम प्रजातियां थी जिनमे से तमाम मैने स्यंम देखी और उनक जिक्र ब्रिटिश भारत के गजेटियर में भी है किन्तु अब प्रजातियां ही नष्ट नही हुई बची हुई प्रजातियों की आबादी भी खतरनाक ढ़्ग से कम हो रही हैं, गांवों मे फ़लदार वृक्षो की कटाई और नये वृक्षों का रोपण न करना इसका मुख्य कारण है कि जहां मै अपनी छत से २० वर्ष पूर्व दसियों हज़ार तोतों के झूण्ड आकाश में उड़ते देखता था, वही आज मुझे कभी-कभी १० या १५ तोते आसमान में उड़ते दिखाई पड़ते है! प्रजातियां ही नही तोतो की तादाद भी कम हुई है वह भी इतनी कम की इस जीव के धरती से नष्ट हो जाने के रास्ते पर शने: शने: लिये जा रही है। परिस्थितियां हमने बनाई है। तो क्या हम परिस्थिति को सुधार नही सकते बरगद, पीपल, महुआ, और पाकड़ के वृक्ष लगाकर।
कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन-262727
भारतवर्ष
सेलुलर- 9451925997