फ़ोटो क्रेडिट: flowersofindia.netअब सुगन्ध व फ़ूलों पर रईसों की बपौती नही रहनी चाहिए!

बात फ़ूलों की करना चाह्ता हूं, चूंकि मसला खूबसूरती और खुशबुओं का है तो थोड़ा हिचक रहा हूं! प्रकृति की अतुलनीय सुन्दरता का बखान करना वर्तमान में मुश्किल और पिछड़ेपन की निशानी है..इन महान साहित्य पुरोधाओं के मध्य…क्योंकि वह समाज की गन्दगी जो उनकी नज़र में पहले से मौजूद है, रिस्तों की कड़वाहट जो उनके घरों में विद्यमान है…दुखों, करूणाओं और प्रेम के तमाम विद्रूप आकार-प्रकारों को (जो उनके मन शाम-सबेरे हर वक्त उपजते रहते हैं) बेचते ये बुद्धि-विद्या के स्वयंभू अब प्रकृति की बात करने में शर्मसार होते है..कारण स्पष्ट है कि रेलवे स्टेशनों, बसड्डों  के बुक स्टाल्स पर प्रकृति  प्रेम नही तलाशा जाता..!.. और राजिनीतिक गलियारों में वोट और गोट की जगह प्रकृति समा ही नही सकती!…फ़िर कौन बेवकूफ़ इन्हे फ़ूल, पत्तियों पर लेखन के लिए पुरस्कृत कर देगा! खैर..मैं लिए चलता हूं कालीदास और उस दौर के…. प्रकृतिकारों का नाम भूल रहा हूं!!!!…..  जब सरोवरों में कमल-कमलिनियां पुष्पित होते थे और राज-कन्यायें उनमें स्नान करने आया करती थी…तो घोड़े पर सवार राज-पुरूषों के घोड़ो को अक्सर उन्ही सरोवरों पर पानी पिलाना आवश्यक होता था !! महलों और बगीचों में युनान,  मंगोलिया, अरब देशो से लाये गये वृक्षों, झाड़ियों, और लताओं की सुनहरी छटाओं का जिक्र रामायण काल से लेकर राज महलों व बौद्ध मठों तक विस्तारित था! मुगलों ने भी दुनियाभर से प्रकृति के विविध रूपों को अपने बगीचों में खूब इकट्ठा किया….फ़ुलवारियों के रूप में!…हाँ हमें अंग्रेजों को कतई नही भूलना हैं जिन्होंने दुनिया में मौजूद अपने सामराज्य के प्रत्येक भू-भाग पर उगने वाली सुन्दरता को भारत में रचा-बसा दिया जिसकी कुछ झलके अभी भी कुछ सरकारी आवासों में दिखाई दे जाती हैं!…मैं आप को याद दिला दूं एडविन लैंडसीयर लुटियन की जिसने नई दिल्ली का निर्माण किया और गवर्नर हाउस, रायसीना हिल जैसी जगहों को प्रकृति के इन रंगो से सरोबार….!! भारत के वन विभाग के पुराने डाक बंग्लों में कुछ योरोपीय व अफ़्रीकी वनस्पतियां अभी भी मिल जायेंगी जिन्हे ये अंग्रेज सुन्दरता और सुगन्ध के लिए इन जगहों पर लगाया था!….एक बात कहना चाहूंगा कि धरती पर कोई प्रजाति देशी-विदेशी नही होती…बशर्ते उसे धरती का वह हिस्सा उस प्रजाति को अपना ले…..! अब भूमिका शायद लम्बी व निरर्थक हो रही तो चलिए आप को ले चलते है उत्तर भारत के मैनहन ग्राम में जहा सरोवर भी है और आम-जामुन व पलाश के बगीचे भी जो धीरे-धीरे पतन की राह पर अग्रसर किए जा रहे हैं! १९८०-९० के भारत में बचपन में मैनें उन्ही गांवों में फ़ुलवारियां देखी जहां कोई मन्दिर मौजूद हुआ और उसके आस-पास पुजारी प्रवृत्ति के लोग…उन्हे रोज जो भगवान को पुष्प अर्पित करने होते थे! सो पुष्प की उप्लब्धता की व्यवस्था इन फ़ुलवारियों के रूप में होती ्थी! नही तो पुष्प व पुष्प-वाटिकायें आदि भारत में राजा-महराजाओं, मध्य भारत में नवाबों और माडर्न ईंडिया में अफ़सरों का विषय ही रहे, एक आम व औसत हिन्दुस्तानी रोटी के जुगाड़ में ही दिन काट रहा होता था उसे तो पेट भरने के लिए रोटी की सुगन्ध ही दरकार रही बेचारा पुष्प और उनकी खुशबुओं से बावस्ता हो इसका न तो उसे कभी मौका मिला और न ही खयाल आ पाया। हाँ इतिहास के पन्नों में जमींदारों और राजाओं की जो फ़ुलवारियां हुआ करती थी उनमें न तो आम हिन्दुस्तानी को जाने की इजाजत थी और न ही उस फ़ुलवारी के किसी पौधें का बीज या कलम किसी अन्य को मिल सकती थी..कारण स्पष्ट था कि आम हिन्दुस्तानी के घरों में पुष्प खिला तो उन जमींदार महाशय के रसूख में धब्बा लग जायेगा….एक वाकया याद आ गया है सुन ले….मेरे जनपद की तहसील मोहम्मदी जो कभी बरतानिया सरकार में  जिला होने का गौरव रख चुका है, वहां दिल्ली सरकार (मुगल) के समय डिप्टी कमिश्नर टाइप की हैसियत से रहने वाले जनाब ने एक बगीचा लगाया था उसमें केतकी (केवड़ा) का पुष्प कहीं से लाया गया, जो इस इलाके भर में अदभुत व अप्राप्त वनस्पति वन कर सैकड़ों सालों तक गौरवान्वित होता रहा…आम हिन्दुस्तानी जिसकी आज भी आदत क्या खून में यह पैबस्त है कि राजा के घर की घास-पूस भी कुछ अतुलनीयता अवश्य रखती है…और वह मूर्ख उस सामान्य बात या वस्तु को असमान्य ढंग से पेश करता हुआ अपने को गौरवान्वित करता आया है….हाँ तो वह साधारण सा केवड़ा केतकी वन सिर उसी बाग में खिलता रहा और हमारे लोग यहाँ तक की मीडिया गौरवगीत गा गा कर भरार्ने लगा….लेकिन सिलसिला नही टूटा….आदत में है जो…..कभी भारत की विविधिता का खयाल भी नही किया कि जहां हर देवता के सहस्र नाम हो, जहं की भाषा पर्यावाचियों से लबलब ठसी हुई हो..जहां एक कोश पर चीजों के नाम बदल जाते हों…इस बारे में भी नही सोचा…..बस केतकी जो वर्ष में एक बार  खिलती है!….दुनिया में सिर्फ़ मोहम्मदी में…संसार में नही होती…फ़लाने हसन द्वारा लाई गयी..केतकी….यह डाकूमेन्टेशन है हमारे मुल्क में…..बहुत जल्दी जहां चीजे बिना सोचे समझे अदभुत हो जाती है…और सरकार व पढ़े लिखे लोग उसे पढ़ते जाते है…बिना सोचे…जाने….साल दर साल केतकी खिलती रही….अभी भी खिलती है…….पूरे संसार में सिर खीरी जिले को यह गौरव प्राप्त है…..आखिर फ़िर वह लाये कहां से थे इस केतकी को?..जब संसार में सिर्फ़…..मजा तो तब आया जब मेरे एक परिचित बुजर्ग ने गर्जना करते हुए मुझसे कहा कि केतकी उनके यहां खिला…..उनकी गर्जना में सदियों से गुलाम रहे हिन्दुस्तानी के भीतर चेतना व आत्म-गौरव का झरना स्फ़ुटित हो रहा था…जैसे वह तोड़ देना चाहते हो उन जंजीरों को जो सिर्फ़ यही कहती हो कि यह पुष्प सिर्फ़ राजा या नवाब के बगीचे में खिलता हो….उन्हे मैं सलाम करता हूं उनके इस जज्बे के लिए….काश…

दरसल वो कही से केतकी का सम्पूर्ण पौधा लाये और उसे रोप दिया…इसमें एक टेक्निकल मामला है, मोहम्मदी वाले केतकी का पौधा जमींदारी रहते तो आम आदमी को अपने घर लगाने की गुस्ताखी नही कर सकता था, लेकिन आजादी के बाद उसने जरूर प्रयास किए..किन्तु इस प्रजाति में नर व मादा पौधे अलग-अलग होते हैम..इसलिए जिसने भी एक पौध उखाड़ कर अपने घरों में लगाई तो नर व मादा में से एक की अनुपस्थिति उसमे पुष्पं के पल्लवन में बाधक बनी रही अंतत: यह मान लिया गया कि यह पौधा उसी बाग में खिल सकता है….नवाब साहब …के बाग …कोई कहता वह पौधे के साथ उस जगह से मिट्टी भी लाये थे..इसीलिए यह उसी बगीचे में खिल सकता है!….या कोई कहता भाई आदमी आदमी की बात होती है, उसके हाथों में…..जस!

खैर अब चलिए मैनहन में जहाँ मैने अपने पूर्वजों के घर के पुनर्निर्माण के साथ-साथ दुआरे पर फ़ुलवारी की परिकल्पना पर काम कर रहा हूं..आखिर आजाद भारत का बाशिन्दा हूं और फ़िजाओं में खुसबूं और सुन्दरता तलाशने का मुझे पूरा हक है! तो मैने पहले चरण में…हरसिंगार, चम्पा, चमेली, रात के रानी, अलमान्डा, बेला, मालती,  के पौधे रोपे हैं, दूसरे चरण में मैं गन्धराज, मौलश्री, जूही, कचनार, बेल का रोपन करूंगा, साथ ही बरगद, सागौन जैसे विशाल वृक्ष भी मेरी कार में सुसज्जित है….जिन्हे कल रोपित किया जायेगा….फ़िलहाल मेरा अगला कदम गाँव के हर व्यक्ति कों तमाम खुशबुओं वाले पौधें भेट करने का निश्चय है!…लेकिन क्रमबृद्ध तरीके से…शायद रात की रानी मिशन…बेला…..चमेली….या फ़िर गन्धराज मिशन…एक वर्ष में प्रत्येक  सगन्ध पुष्प वालें पौधों  में एक सुगन्धित पौधा. वितरित करूंगा..जो हर घर में पल्ल्वित हो…..इसी इरादे के साथ.. पुष्पवाटिकाओं के चलन की शुरूवात करने की कोशिश…शायद रिषियों, और राज-कन्याओं और राज-पुरूषों के शैरगाह की जगहें आम हो सके आम आदमी के मध्य…जमींदारों, नवाबों और नौकरशाहों के बगीचों का मान तोड़ती ये पुष्पवाटिकायें एक औसत हिन्दुस्तानी को अपनी परेशानियों व तंगहालियों की गन्ध के मध्य विविध सुगन्धों का एहसास करा सके…और सुगन्धों व नवाबों के मध्य रिस्तों का मिथक टूट पाये….!

कृष्ण कुमा्र मिश्र

मैनहन-262727

भारतवर्ष

कृष्ण कुमार मिश्र* बरवर का ध्वस्त साम्राज्य- जो बाछिलों के गौरवशाली अतीत का प्रतीक है

महाभारत काल की प्रसिद्ध विराटपुरी खीरी जनपद के बड़खर को कहां जाता है जहॉं आज भी प्राचीन मूर्तियां, शिवलिंग व ध्वंशावशेष मिलते हैं। मध्य भारत के बाछिल रजवाड़े जो खीरी, पीलीभीत जनपदों पर काबिज थे इन राजाओं की सत्ता का मुख्य केन्द्र था बड़खर जहॉं विशाल किला निर्मित था इनके अन्य सत्ता केन्द्र थे निगोही-शाहजहॉंपुर, दीवाल-पीलीभीत और कैम्प शारदा-खीरी जहॉं से ये अपनी प्रशासनिक कारगुजारियां संचालित करते थे। इसी वक्त का एक भव्य किला था बरवर में वह जगह अब दिलावर नगर के नाम से जानी जाती है। सबसे खास बात यह है कि ये बाछिल क्षत्रिय अपने आप को पौराणिक राजा वेंना का वंशज कहते थे जो महाभारतकालीन राजा विराट के पिता थे। इन बाछिलों का जिक्र एतिहासिक दस्तावेजों में सन 992 ईस्वी तक का ही इतिहास प्राप्य है जब ये खीरी के पश्चिम में पीलीभीत तक अपना साम्राज्य विस्तारित किये हुए थे किन्तु 992 ईस्वी से लेकर सन 1600 ईस्वी तक के मध्य का इतिहास अस्पष्ट है शताब्दियों से शासन कर रहे बाछिल तुगलकशाह व फिरोजशाह की हुकूमत में थोड़ा बहुत अवश्य विचलित किये गये लेकिन शहजहॉं का शासनकाल आते-आते खीरी पर पूर्ण रूप स बाछिलों का आधिपत्य हो चुका था जिसमें धौरहरा, निघासन, भूड़, खैरीगड़ स्टेट (आज का दुधवा नेशनल पार्क) इलाके इनके आधिपत्य में थे पौराणिक राजा विराट के बाद यदि कोई बाछिल राजा महत्व पा सका है तो वह बरवर का  बाछिल राजा छिप्पी खान था असल में छिप्पी खान इस राजा का असली नाम नही था यह नाम तो दिल्ली सरकार द्वारा दी गयी एक उपाधि थी इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है- एक बार कर्रा मानिकपुर में दिल्ली सरकार के विरूद्ध विद्रोह भड़क उठा जिसे कुचलने के लिए शाहजहॉं ने बरवर के बाछिल राजा को भेजा और इस व्यक्ति ने बड़ी बर्बरता  से विद्रोह को कुचला यह राजा कत्ल-ए-आम में माहिर व भयानक कृत्य करता था जिससे इसकी पोशाक रक्त के छींटों से (छीप) रंग जाती थी इन्ही छींटों के कारण यह व्यक्ति दिल्ली राज में व जनमानस में छिप्पी खान के नाम से जाना गया। कहा जाता है कि इस व्यक्ति ने एक-एक विद्रोही के सिर धड़ से अलग किये और तलवार से उनके धड़ों को क्षत-विक्षत कर दिया इस युद्ध में बाछिल राजा की रक्तरजिंत तलवार व रक्त से सने कपड़ो को देखकर शाहजहॉं ने इस योद्धा को छिप्पी खान की उपाधि से नवाजा। इसके बाद छिप्पी खान ने अपने अधिकार में अन्य जागीरें भी शमिल की, एक विशाल जागीर का मालिक बन जाने पर इस राजा के मन में खैराबाद सरकार (दिल्ली सरकार की एक कमिश्नरी) से नाता तोड़ने का खयाल आ गया ताकि वह इस समृद्ध रियासत पर स्वन्तंत्र हुकूमत कर सके इस कारण इसने चौका नदी के घनें जंगलो के मध्य अपना अभेद्यय दुर्ग बनवाया और यहीं से सत्ता का संचालन करने लगा अब तक दिल्ली पर शाहजहॉं का राज खत्म हो चुका था और उसका बेटा औरंगजेब अपने पिता शाहजहॉं को सत्ताच्युत करके खुदमुख्तार बन गया था उसने छिप्पी खान पर कुपित होकर राजपूताना (राजस्थान) के चौहान राजा छत्रभोज को छिप्पी खान को रियासत से बेदखल कर देने का हुख्म जारी कर दिया छत्रभोज ने शाही सेनाओं के साथ बाछिलो के साम्राज्य पर हमला बोल दिया और छिप्पी खान को गिरफ्तार कर लिया इस लड़ाई में छत्रभोज की सेनाओं नें छिप्पी खान के किलों को भी ध्वस्त कर दिया छिप्पी खान को 18 महीनों तक रखा गया और फिर तलवार से उसका सर कलम करने का फरमान जारी किया गया छिप्पी खान की हत्या के बाद  पिहानी के सैयदांे नें छिप्पी खान के सत्ता के हेडक्वार्टर बरवर पर अपना अधिकार कर लिया बाछिल राजा छिप्पी खान के 11 भाई थे जिनमें दिल्ली सरकार के प्रति बहुत आक्रोश था उन्होने बगावत भी की पर वह अपना छिना हुआ साम्राज्य कभी वापस न ले पाए अंततः वह डाकुओं की तरह जीवन यापन करने लगे इनमें से एक भगवन्त सिंह नामीं डाकू हुआ जिसका खौफ कठना नदी के जंगलों में इस कदर था कि अंग्रेज इन्तजामियां भी इससे डरती थी।

बाछिल राजा छिप्पी खान का वह विशाल किला खण्डहर के रूप में आज भी विद्यमान है बरवर का यह किला जो बाद सैयद राजा मुक्तदी खान जो गोपामऊ के गर्वनर रहे मुर्तजा खान का पोता था, ने अपने कब्जे में ले लिया अब बाछिलों की यह जागीर सैयदों के पास आ गयी थी, यह रियासत सैयद मुर्तजा खान को दिल्ली सरकार ने मालगुजारी से मुक्त (रेन्ट फ्री) कर के दी थी मुक्तदी खान बरवर चतुष्कणीय विशाल किले का निर्माण कराया इसके अलावा बाछिलो के पुरानें किले पर भी निर्माण कार्य कराए गये, आज दिलावर नगर का यह किला अपने वैभवकाल का प्रतीक चिन्ह है इस विशाल दुर्ग का मुख्य दुर्गद्वार अभी भी मौजूद है। सैयदों की शासन व्यवस्था में निर्मित शाही हमाम, कुऑं, व अन्य छोटी इमारतें आज भी सुरक्षित हैं हांलाकि विशाल टीले पर बना यह दुर्ग विभिन्न प्रकार की झाड़ियों, जगली पुष्पों व जीव-जन्तुओं का बसेरा बन चुका है। लेकिन इन झाड़ियों में विलुप्त हो रही गौरैया अच्छी सख्या में दिखायी दी यह बात पंक्षी प्रेमियों के लिए अवश्य सुखद होगी, स्थानीय ग्रामीणों के मुताबिक यहॉं अक्सर लोग खजानें की तलाश में आते हैं और जगह-जगह पर खुदायी करते हैं इस बात के प्रमाण के तौर पर कई स्थानों पर गडढे मौजूद हैं।

सैयद राजवंश के वर्तमान वारिस नवाब सैयद आरिफ हुसैन ने बताया कि उनके ही खानदान के एक शख्स जो सूफी थे जिनका नाम नवाब अली रजा था इन्होने विवाह नही किया और जीवन पर्यन्त दिलावर नगर के प्राचीन बाछिलों के किले में रहे उनकी मजार भी इसी किले के भीतर ही बनवायी गयी स्थानीय लोग इस मजार पर सजदा करते है नवाब आरिफ हुसैन इस किले को सूफी नवाब अली रजा़ की स्मृति में एक धार्मिक स्थल के रूप में विकसित करना चाहते हैं। मोहम्मदी निवासी फज़लुर रहमान ने बताया कि अब इस स्थान पर लोगो का अतिक्रमण बढ़ रहा है साथ ही साथ पास के साउथ खीरी फारेस्ट की जमीन पर भी लोगों की नजर है

बाछिलों का यह अतीत आज भी इस प्राचीन किले के रूप में सरक्षित है जो ग़दर के वक्त लगभग नष्ट कर दिया गया था बाछिलों के साथ-साथ ग्रेट सैयद फैमिली का रोचक इतिहास भी यह किला अपने में सजोंये हुए है दो संस्कृतियों की यह विरासत यदि पुरातत्व विभाग व स्थानीय इन्तजामिया द्वारा संरक्षित व विकसित न की गयी तो जल्द ही यह हजारों वर्ष का इतिहास गर्त में समा जाएगा और हमारी अगली पीढ़ी अपने इस अतीत से वंछित हो जाएगी हांलाकि यह वह वक्त था जब सत्ता को हासिल करने के लिए सारे वसूल व सम्बंधों को दरकिनार कर दिया जाता था और व्यक्ति सत्ता के लिए किसी का भी कत्ल व किसी से भी बगावत करने में नही चूकता था किन्तु अतीत अपना ही होता है चाहे वो कितना ही बुरा क्यों न हो और अतीत का संरक्षण व अध्ययन हमारे भविष्य का पथ प्रदर्शन में सहायक होता है।  इसलिए धूल की परतों की तरह विभिन्न सभ्यतायें एंव संस्कृतियों की परतों से युक्त हमारा इतिहास जिसे बड़ी जिम्मेंदारी व सावधानी से सहेजकर एक-एक परत का अनावरण कर उन संस्कृतियों को पढ़ना होगा ताकि हमारी बिखरी एतिहासिक कड़ियां आपस में जोड़ी जा सकें।

-कृष्ण कुमार मिश्र
77-शिव कालोनी कैनाल रोड
लखीमपुर-खीरी-262 701
दूरभाष- 05872-263571

09935983464

09451925997

 

बाघ जो जिन्दा रहने के लिये जूझ रहा है मानवजनित..........

बाघ जो जिन्दा रहने के लिये जूझ रहा है मानवजनित.............

 

 

खीरी जनपद के बाघ

एक वक्त था जब उत्तर भारत की इस तराई में बाघ और तेन्दुआ प्रजाति की तादाद बहुत थी यहां धरती पर विशाल नदियों के अलावा छोटी-छोटी जलधारायें खीरी के भूमण्डल को सिंचित करती रही नतीजा नम भूमि में वनों और घास के मैदानॊं का इजाफ़ा होता रहा है । लोग बसते गये, गांव बने, कस्बे और फ़िर शहर, लोग जंगल और इनके जीवों के साथ रहना सीख गये सब कुछ ठीक था पर आदम की जरूरते बढ़ी आबादी के साथ-साथ, नतीजा ये हुआ कि जंगल साफ़ होने लगे और साथ ही उनमे रहने वाले जीव भी ! .गांव बेढ़ंगे हो गये, कस्बे व शहर आदिमियों और उनकी करतूतों से फ़ैली गंदगी से बजबजाने लगे और प्रकृति की दुर्दशा ने उसके संगीत को भी बेसुरा कर दिया जिसे ……….!!!

अब सिर्फ़ इस जनपद में टाईगर व तेन्दुआ, दुधवा टाईगर रिजर्व के संरक्षित क्षेत्र में बचे हुए है, खीरी के अन्य वन-प्रभागों में यह खूबसूरत प्राणी नदारद हो चुका है।

लेकिन मैं यहां एक एतिहासिक दृष्टान्त बयान करना चाहता हूं जो इस बात का गवाह है कि खीरी के उन इलाकों में भी बाघ थे जहां आज सिर्फ़ मनुष्य और उसकी बस्तिया है वनों के नाम पर कुछ नही ! नामों-निशान भी नही, हां गन्ने के खेत जरूर है जो ………….जिन्हे दिल बहलाने के लिये जंगल मान सकते हैं!

आज से तकरीबन १०० वर्ष पूर्व किसी धूर्त और चापलूस भारतीय राजा ने अपने अग्रेंज मालिक के साथ मेरे गांव आया जिसके पश्चिम में महुआ और बरगद, जामुन व पलाश के जंगल थे, और वही एक बाघ न जाने कब से रह रहा था, उन कलुषित व धूर्त मानसिकता वाले लोगो ने उसे मार दिया, ग्रामीण, राजाओ के इस तमाशे को देखने के अतिरिक्त क्या कर सकते थे, उस घटना के बाद इस जगह का नाम पड़ा “बघमरी” या “बाघमरी” । आज इस जगह खेती होती है कुछ दूर पर बस्तियां है और अब जंगल यहां से तकरीबन १०० किलोमीटर दूर यह है विनाश की दर जो मानव जनित है !

पर आज मुझे इस स्थान को देखकर उस अतीत की कल्पना करने का मन होता है जिसे मैने नही जिया, वह पलाश के फ़ूलों से लदे वृक्ष, महुआ के फ़लों की मदहोश करने वाली खुसबू, बरगद के घने जटाओं वाले वृक्ष, अकहोरा की झाड़िया, बेर और न जाने क्या-क्या जो हज़ारों पक्षियों का बसेरा होंगें! मखमली घास और उस पर आश्रित सैकड़ो मवेशी !

और इन झुरमुटों में कुटी बनाये रहते हुए गांव के ही अध्यात्मिक पुरूष  जिनका जिक्र मैने सुना है !

अब यहां सब सुनसान है! सिर्फ़ एक सड़क……………………….

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन-262727

भारतवर्ष

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