अवधी सम्राट पं० बंशीधर शुक्ल

क्यों न हम पं० बंशीधर शुक्ल जी के जन्म-दिवस को विश्व अवधी दिवस के रूप में मनायें।

वो विधायक थे, स्वंतत्रा संग्राम सेनानी थे और हिन्दी अवधी के मर्मग्य, लेकिन फ़िर भी वो जननायक नही थे और न ही नेता, असल में सच्चे हितैषी थे उन सभी प्रजातियों के जो इस धरती पर रहती है। ये सारी बाते उनकी रचनाओं मे परिलक्षित हो रही है, कभी “गरीब की होली”  में उन्होंने सर्वहारा की दारूण कथा का बयान किया  कि कैसे इन गरीबों के घर कुत्ते-बिल्लिया ही घुमड़-घुमड़ कर आते है, जबकि लोग इधर का रूख ही नही करते। तो दूसरी तरफ़ ” बछड़ा धन्य गाय के पूत” लिखकर इन्होंने पूरी मानव जाति को ये एहसास कराने की कोशिश कि कैसे मनुष्य जानवरों का शोषण करता है और बदले में उन्हे तमाम कष्ट और भूखा रखता है……..भयानक गुलामी…..!

इस महान शख्सियत की कुछ बाते ब्लाग पर उकेरने की एक कोशिश!

बसन्तोत्सव के अवसर पर, मैं रूबरू हुआ हिन्दी-अवधी के तमाम पुरोधाओं से, जो संघर्षरत है अपने सीमित संसाधनों के बल पर अपनी भाषा की सेवा के लिए! बसन्त पंचमी के इस अवसर पर मेरा जाना हुआ उस धरती पर जहां सर्वहारा के लिए संघर्ष करने वाले इस नायक का जन्म हुआ। यहां हर वर्ष ये आयोजन होता है जो उनके परिजनों द्वारा संचालित होता है। गांव मे मैं रास्ता पूंछने लगा कुछ बच्चों से कि भैया “कवि वाला कार्यक्रम” कहां हो रहा है तो बच्चे ने इशारे से बताया किन्तु उत्सुकतावश ये पूछने पर कि ये कौन थे……..तो बालक निरुत्तर थे! खैर शुक्ल जी की स्मृति में बनी लाइब्रेरी जिसकी शक्ल गांव की प्राथमिक पाठशालाओं सी थी, में इधर-उधर कुछ कुर्सियों पर लोग छितरे हुए थे मध्य में जमीन पर दरे बिछाये गये थे, शायद ये जहमत बच्चों के बैठने के लिए की गयी थी। किन्तु भारत के भविष्य का एक भी कर्णधार मुझे वहां नही दिखा! न तो ग्रामीणों की सहभागिता थी और न ही जनपद वासियों की, प्रशासन का भी कोई कारिन्दा मौजूद नही था। मंचासीन कवियों व गणमान्य व्यक्तियों की तादाद अधिक थी और स्रोताओं की कम! और उनकी वेशभूषा और शरीर की दशा-व्यथा उनकी भाषा की दशा-व्यथा से पूरी तरह मेल खाती थी। सस्ते व वैवाहिक कार्ड छापने वाले प्रकाशनों से मूल्य आदि चुका कर प्रकाशित पुस्तकों का विमोचन और उनका मान बढ़ाने के लिए इस तरह के कार्यक्रमों का सहारा कुछ यूं लग रहा था जैसे हमारे लोग किसी अंग्रेजी पुस्तक के पांच-सितारा होटल में हो रहे एडवरटीजमेन्ट की नकल कर अपनी खीज निकालने की कोशिश कर रहे हो।……..झोलों से निकाल-निकाल कर पुरस्कार वितरण, और कांपते हुए हिन्दी-शरीरों पर शाल डालने की कवायदें।    ……बिडंबना के अतिरिक्त कोई माकूल शब्द नही है मेरे पास।  हाँ कुछ पत्रकार, अवधी प्रेमी और कुछ समय के लिए खीरी के मौजूदा सांसद अवश्य मौजूद थे। मैं यहां ये नही कहूंगा कि मूल्यों में गिरावट हुई है, हाँ मूल्य बदल जरूर रहे है। अगर कुछ नही बदला है तो अतीत की बेहतर चीजों का परंपरा के तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी जिन्दा रखने की हमारी नियति। और इसी नियति ने अवधी को भी जिन्दा रखा है हमारे घरों में……।

बसन्त पंचमी का दिन खीरी जनपद में खासा महत्व रखता है, क्योंकि इसी दिन अवधी सम्राट पं० बंशीधर शुक्ल का जन्म हुआ था। यें वही शख्स है जिनकी रचनाओं ने, सुभाष की आजाद हिन्द फ़ैज़ को लांग मार्च का गीत दिया और बापू के साबरमती आश्रम को भोर की प्रार्थना। सन १९०४ ईस्वी को पं० बंशीधर शुक्ल का जन्म खीरी जिले के मन्योरा ग्राम में हुआ। आप बापू के नमक आंदोलन से लेकर आजाद भारत में लगाई गयी इमेर्जेन्सी में भी जेल यात्रायें की। १९३८ में आप ने लखनऊ में रेडियों में नौकरी भी की, स्वन्त्रता आंन्दोलन के इस सिपाही ने आजाद भारत की नेहरू सरकार की व्यव्स्था से भी विद्रोह किया और कांग्रेस छोड़कर प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में चले गये। इसी वक्त उन्होंने लिखा था “ देश का को है जिम्मेदार, चौराहे पर ठाड़ किसनऊ ताकय चरिव वार”। सन १९५७ के उत्तर प्रदेश असेम्बली चुनाव में बंशीधर शुक्ल लखीमपुर से एम०एल०ए० चुने गये। सन १९७८ ईस्वी में शुक्ल जी को उत्तर प्रदेश सरकार के हिन्दी संस्थान ने मलिक मोहम्मद जायसी पुरस्कार से सम्मानित किया। किन्तु शुक्ल जी का सच्चा सम्मान तो जन जन में व्याप्त था उनकी रचनाओं के द्वारा, “कदम-कदम बढ़ाये जा खुशी के गीत गाये जा…..”  प्रत्येक सुबह रेडियों पर उन्ही का गीत गूंजता “उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई अब रैन कहां जो सोवत है” जिसे मैने भी अपने बचपन में सुना है। सन १९८० में सच्चे समाजवादी की भूमिका निभाते हुए ७६ वर्ष की आयु में आप का निधन हो गया।

खूनी परचा, राम मड़ैया, किसान की अर्ज़ी, लीडराबाद, राजा की कोठी, बेदखली, सूखा आदि रचनाये उस दौर में जनमानस में खूब प्रचलित रही। पं० बंशीधर शुक्ल के ४८ वें जन्म-दिवस पर उनके गांव मन्योरा में एक अभिनन्दन समारोह हुआ। इसके पश्चात बसन्त पंचमी १ फ़रवरी सन १९७९ में कथा सम्राट अमृत लाल नागर व तत्कालीन उप-मुख्यमन्त्री भगवती सिंह की मौजूदगी में शुक्ल जी का अभिनन्दन उनके गाँव में किया गया। शुक्ल जी के बाद भी तब से आज तक यह सिलसिला जारी है, मन्योरा और जिला खीरी के लोगों द्वारा। शुक्ल जी के नाम पर उनके गांव मन्योरा में एक पुस्तकालय और लखीमपुर रेलवे स्टेशन में एक पुस्तकालय जो हमेशा बन्द रहता है। उस स्वतन्त्रता सेनानी और अवधी के मर्मग्य की बस यही स्मृति शेष है।

अन्तता: यही कहा जा सकता है सरकारों को इस देश की माटी के सपूतों के महान प्रयासों को आगे बढ़ाना चाहिए, नही तो तमाम बेहतर व जरूरी चीज़े नष्ट हो जायेगी।

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन की तमाम सुबहों में मैने वो गीत सुने जिन्हे चुनुवा फ़कीर गाया करते थे। अब वे लोग जैसे विलुप्त हो गये या यूं कहे कि विकास की बलि-वेदीं पर चढ़ा दिए गये। भोर हो नही पाता था पांच या सात की तादाद में ये लोग पीले य सफ़ेद वस्त्रों से आच्छादित, नंगे पैर, और हाथों में कंमडल लिए गांव की फ़ेरी करते, गीत गाते जैसे ग्रामीणों को जगा रहे हो कि अब भोर हो गई है अपनी दिनचर्या शुरू करे !!  जब गांव की परिक्रमा पूरी हो जाती, तो वो गीत गाना बंद कर देते, और फ़िर एक दूसरी परिक्रमा करते और ग्रामीणों के द्वार-द्वार जाकर रुकते, जो कुछ मिलता चुपचाप ले लेते और चले जाते।

…………………………….चुनुवा फ़कीर

बस अन्तिम शब्द याद रहे है मुझे गीत धूमिल हो गया है कभी किसी बुजुर्ग से पूंछूगा और विस्तार से बताऊं गा आखिर कौन थे वे लोग।

कोयल बोले या गौरैया अच्छा लगता है
अपने गाँव में सब कुछ भैय्या अच्छा लगता है


हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

Mahadeo

Mahadeo

सोने-चाँदी से नहीं किंतु

तुमने मिट्टी से दिया प्यार ।

हे ग्राम देवता ! नमस्कार !

१९४८ में लिखी गयी ये पंक्तिया हमारे गावॊं के किसानों पर है जो अन्नदाता है समाज का जिसे शत शत नमन!

किन्तु आज मै इतिहास के उस पन्ने पर दृष्टि डाल रहा हूं जो गौर तलब नही है हमारे मध्य मैं उस ग्राम देवता की बात करना चाहता हूं जो हमारे गावों में लोग अपने स्वास्थ्य, बीमारी, चोरी, डाकैती और महामारी से बचने के लिये ग्राम देवता को पूजते है खासकर महिलायें । यहां यह बताना जरूरी है कि महिलायें ही हमारे धर्म, पंरपरा, और रीति – रिवाज की वाहक एवं पोषक होती है एक पीढ़ी से दूसरी .तीसरी……….!  यही सत्य है !

आज भी ग्रामीण भारत के ग्रामों में स्त्रियां तमाम तरह के पारंपरिक धार्मिक रिति-रिवाजों का आयोजन करती है और इन आयोजनों के विषय में पुरुषों को कोइ खास मालूमात नही है या फ़िर वें यह जानने की कोशिश नही करते ।

कुछ बाते मै यहां बताऊगा जो एतिहासिक महत्व की है जिन्हे मेरी मां ने मुझे बताया, मेरे गांव मैनहन में जो देवता लोगों के द्वारा पूजित होते है वह इस प्रकार है भुइया माता, प्रचीन मंदिर, देवहरा, गोंसाई मंदिर, मेरे घर के सामने २०० वर्ष पुराना नीम जहां शिव भी स्थापित है, मुखिया बाबा के दुआरे का नीम, सत्तिहा खेत (सती पूजन) और एक और स्थान जो गांव के पश्चिम ऊसर भूमि में स्थित है की पूजा होती है मैने अपने जीवन में इन स्थलों पर पुरूषों को पूजा करते नही देखा कुछ वैवाहिक कार्यक्रमों  में शायद मुझे कुछ याद है कि कुछ पूरूष खेत में पूजा करने जाते थे ।

इन सभी स्थलों का अपना इतिहासिक महत्व है जो हज़ारों वर्षो की कहानी कहता है । आज पूरूषों की बात तो छोड़ दे महिलायें भी इन रीति-रिवाज़ों से अलाहिदा हो रही है । शायद कल हमारा ये इतिहास हमारी पीढ़ियों के लिये अनजाना हो ।

विदेशी परंपराओं का प्रभाव हम पर इतना भारी पड़ रह है कि हम अपनी परंपराओं से विमुख होते जा रहे है  ।

क्यों भाई अब आप ही बताइय़े कि एक फ़िल्म से आयातित हुआ वैलेनटाइन डे क्या हमारे गुरू पूर्णिमा पर या किसी अन्य दिवस पर भारी नही है ?

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन

09451925997