baksewala_kk

बक्सेवाला

ये वाकया जिसे मैंने फेसबुक पर प्रसारित किया था ..अब मैनहन विलेज में 

ये बुजुर्ग है हमारे खीरी क़स्बे के बक्से वगैरह की मरम्मत करते है। उस्ताद हैं अपने फ़न में। उम्र तकरीबन 85 साल सुनाई भी कम पढता है कुछ पूछने पर न सुन पाने पर दोबारा पूछने पर अपनी अक्षमता को हासिए पर कर देते है वो मुस्कराकर जवाब देकर! पुछा की क़स्बे से इतनी दूर साईकल चलाकर आते है थक जाते होंगे।।। जवाब बड़ा मार्मिक सा था एक दम खरा कार्लमार्क्स वाला ।। पेट पर हाथ रखा बोले सब इसकी ख़ातिर। पेट की खातिर वाली बात बुर्जुआ लोग शायद ही समझ पाए और अगर समझ ले तो दुनिया और खूबसूरत हो जाए। खैर चलिए एक और बात बताई हमें इन बुजुर्ग ने जब मैंने पूछा की बेटे तो होंगे परिवार होगा तो बोले हाँ सब है पर सब अपने अपने दाना घास में मशगूल है। फिर एक सुन्दर बात बोले ये बुजुर्ग ज़रा ध्यान से सुनिएगा आप लोग भी….बोले..दोनों हाथ आपस में जोड़ कर सिर आसमान की तरफ़..सब बंसी वाले का करम है वही सबका मददगार है…बुर्राक सफ़ेद दाढ़ी..उम्र को रेखांकित करता रेखाओं दार सफ़ेद चेहरा…आँखों में एक सदी की परछाई सबकुछ बयां कर रही थी।…ये कृष्ण के कर्मवाद की मजबूरी है या आवश्यकता समझ नहीं आता बंसी वाले तेरी धरती के लोग तेरे नाम का सहारा लेते है चाहे वो किसी मजहब को मानते है।… हमने आज इन बुजुर्ग में फिर एक बार अपने भारत को देखा..आप भी देखना चाहेंगे!..कृष्ण

कृष्ण कुमार मिश्र 

Ab kya kha jaaye
Vaise desh ko isi prakar ke muslims ki jarurat hai na ki baat – baat pr jehad ka nara lgane waalo ki
  • कृष्ण कुमार मिश्र Dharmendra Awasthi ji बात इस प्रकार और उस प्रकार के मुसलमान या हिन्दू की नहीं है यहाँ।। यहाँ इंसानी बात है।। और कृष्ण और राम चुकी भारतीय जनमानस में रचे है इस लिए स्वाभाविक है किसी भी व्यक्ति के मुख से उनके नाम का उच्चारण।।। ईश्वर के कई नाम हो सकते है।। अल्लाह भी और कृष्ण भी।
  • कृष्ण कुमार मिश्र Dharmendra Awasthi Uttam Pandey ji मज़े की बात ये है की यार बंसी वाले का रौला बहुत है आज भी। बंसी वाला मिल जाए तो पूंछू यार बड़ा जलवा है तेरा…सूर रसखान मीराबाई मिल जाए तो चरण पकड़ लू की भाई आपलोग तो जनमानस के ह्रदय में ही ले जा के बिठा दिऎ अपने कृष्ण कन्हैया को।। ज़रा इधर भी दृष्टी डाल दो दो चार दोहे सवैया हो जाए।।। फिर क्या कहने।।???
Bura kuch nhi hai
Ham hi shi hai aor ham hi mahan hai
Jab koi ye bolta hai problm wahi se suru hoti hai
  • कृष्ण कुमार मिश्र और हां आमिर खुसरों रसखान ने ब्रज में ही अपनी रचनाए लिखी जो कृष्ण को ईश मानकर उनके प्रेम में डूब जाने के भावों को शब्दांकित किया है
  • Vivek Saxena yahi khasiyat hai marxism ki, ke burjua ko koso aur khud burjua banne ki hasrat palo………. kya sampoorna samyavadi vyavastha me bhi ye sambhav hai ki sabhi burjua ya sabhi sarvahara ho jayen……… jamini haqiqat me to ye sambhav nahi, haan……….diva swapna me ho sakta hai, jo marxist aksar dekhte rahte hain…………
  • Jitendra Geete बहुत अच्छे ” मिश्र जी ” यही तो हमारा भारत है। इस सोच पर सब कुछ न्योछावर ” भारत दर्शन ” के लिए शुक्रिया
  • Erum Raza Afsos aj bhi karl marx ko aap khara kehte hi.
  • हिमाँशु तिवारी भाई साब आपने बुजुर्ग चाचा का मार्मिकता के साथ शानदार वर्णन करते हुए अपने अन्दर के साहित्यकार का ख़ूबसूरत उपयोग किया लेकिन हर बात के लिए बुर्जुआ को जिम्मेदारी दे देना केजरिवालवाद(पलायनवाद )की निशानी हैं
  • कृष्ण कुमार मिश्र Erum Raza हिमाँश जी बात कार्लमार्क्स की नहीं पेट की है और उस सन्दर्भ में मैंने मार्क्सवादियों के शब्द इस्तेमाल किए बस ।।यहाँ मैंने कुछ भी धार्मिक या राजनैतिक होकर नहीं कहा।। सिर्फ संस्कृति की सुन्दरता समाज और परिवार की वेदना और अपने भारत की बात कही है बंधू।।।। शेष।।। कुछ नहीं
  • Vivek Saxena pet ki baat per agar hamesha akele marx yaad aayen…….kabhi kabeer ya kisi aur ka naam na aye ……….tab to ye marxwaad hi hua……..
  • कृष्ण कुमार मिश्र Vivek Saxena ji कबीर के दौर में मुल्क की स्तिथि ये नहीं थी सयुंक्त परिवार थे सामाजिक संवेदनाये थी और तभी कबीर ने पेट की बात के बजाए अध्यात्म की बात की संतोष और शान्ति की बात की।। तब तो इस बात का पालन होता था की ।।।इतना दीजिए जा में कुटुम समाय मैं भी भूSee More
  • Erum Raza U mean to say desi daal me vilayti tadka.
  • कृष्ण कुमार मिश्र Erum Raza ji कुछ भी समझ ले। अभियक्ति मेरी समझ आप की!!!
  • कृष्ण कुमार मिश्र

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“Earth provides enough to satisfy every man’s need, but not every man’s greed” —–Mahatma Gandhi

अधिकार

प्रकृति आप को इतना खुशी मन से देगी

मैं पेड़ों को काटने से नही रूकूंगा
भले ही उनमें जीवन हो।मैं पत्तियों को तोड़नेण से नही रूकूंगा
भले ही वे प्रकृति को सौंदर्य प्रदान करती हों।मैं टहनियों को तोड़ने से नही रूकूंगा
भले ही वे वृक्षों की बाजुंए हो।
क्योकि———–
मुझे झोपड़ी बनानी है।
–चेरावंदाराजन राव

मैनहन (भारत), बात सन १९८२-८३ की रही होगी, मुझे ढ़ग से याद नही, उस वक्त  मेरी उम्र छह वर्ष की रही होगी, यही वह वक्त था जब वृक्षों को बचाने के लिये एक आन्दोलन खड़ा हो चुका था पूरे भारत वर्ष में और मैं उसका एक सिपाही हुआ करता था!

वैसे ये एक नई शुरूवात थी किन्तु हमारे अतीत में जो सभ्यतायें रही उन्होने प्रकृति के प्रति आदर व सम्मान रखा और जरूरत से अधिक कुछ नही लिया, फ़िर चाहे वह पितृ प्रधान आर्य सभ्यता हो जिसमें वृक्षों को पूजा गया और उन्हे देवता कहा गया, या फ़िर भारत के वनॊं में रहने वाली मातृ प्रधान संस्कृति के लोग हो जिन्होनें वन देवी के रूप में वनों और वृक्षों को पूजा की !

अतीत के झरोखे में जो पुख्ता बाते पता चली वह यह हैं कि सन १७३० ईंस्वी में अमृता देवी के नेतृत्व में जोधपुर के खेजराली गांव की ३६३ महिलाओं ने अपनी जीवन की परवाह किये बगैर खेजरी Prosopis cineraria वृक्षों की रक्षा करने के लिये आगे आयी और वृक्षो से लिपट गयी, और दूसरी दफ़ा यह क्रान्ति भी महिलाओं ने की मार्च २६, १९७४ में, अबकी बार ये किसान महिलाये चमोली जनपद के हेमवलघाटी की रेनी गांव की थी, १९८० में यह अहिंसक आन्दोलन पूरे भारत में फ़ैल चुका था। वनविभाग द्वारा वनों की अन्धाधुन्ध कटाई के विरोध में। वैसे तो गढ़वाल में यह क्रान्ति १९७० में ही धीरे-धीरे अग्रसर हो रही थी वृहत रूप लेने के लिये।

उपरोक्त किसी बात का मुझे ज्ञान नही था जब मै इत्तफ़ाकन चिपको आंदोलनकारी बना, वह मात्र एक संयोग था जो इस एतिहासिक आंदोलन से मुझे जोड़ता है!

मेरे बग्गर में एक बगीचा था जिसमें तमाम विशाल वृक्षों के अलावा एक महुआ का छोटा वृक्ष था तने में दो शाखायें ऊपर की  तरफ़ रूख किये थे, इन्ही दो शाखाओं के मध्य जो स्थान बना उसे मैं घुड़सवारी के लिये प्रयुक्त करता था, इस वृक्ष के तने के फ़ाड़ में जब मैं बैठता तो मै मान लेता की पीछे वाली हरी पत्तियों वाली खूबसूरत डाल घोड़े की पूंछ है और आगे वाली लम्बी मोटी डाल घोड़े का सिर, इस आगे वाली डाल की एक टहनी पकड़ कर  लगाम की तरह खीचता और वृक्ष को हिलाने का प्रयास करता, मुझे इस वृक्ष से प्रेम हो गया था, क्योकि यह मेरा प्रिय घोड़ा जो बन गया था, खेल-खेल में ही सही उस वृक्ष से मेरे मित्रता के मेरे भाव बहुत गहरायी तक थे कि इस वृक्ष की किसी टहनी को भी छति पहुंचे, यह सोचकर मै दुखी हो जाता। नित्य हम दोनो एक लम्बे सफ़र पर निकलते थे।..काल्पनिक सफ़र….ही सही

एक दिन मैं अपने प्रिय वृक्ष के साथ खेल रहा था तभी मेरे बाबाजी ने मुझे बताया कि यह वृक्ष वह काट देंगे, और इसकी लकड़ी का इस्तेमाल करेंगे मोंगरी बनाने में, मैं एकएक उनके इस निर्णय से अवाक सा रह गया मेरी विकलता बड़ती जा रही थी, अखिरकार मैनें उनसे आग्रह किया कि मेरे उस साथी को छोड़ दे, किन्तु उन्होने इस वृक्ष कॆ बेतुकी जगह पर होने और इसमें वृद्धि न होने की वज़ह का हवाला देते हुए मेरी बात टाल दी।

ज्योंही मैने उन्हे पेड़ की तरफ़ धारदार गड़ासे के साथ बढ़ते हुए देखा मै उग्र हो गया और दौड़ कर अपने उस प्रिय वृक्ष से लिपट गया, उनके तमाम प्रयासों के बावजूद मैंने महुआ के उस वृक्ष-मित्र को नही छोड़ा और उसके तने में चिपक कर रोता-चिल्लाता रहा, किन्तु कब तक अखिरकार मेरी जिद मेरे बाबा के निर्णय के आगे हार गयी और वह वृक्ष कट गया। मैने उसे कटते तो नही देखा या न देख पाया हूं, किन्तु दूसरे रोज मै उस जगह की रिक्तता को देखकर बहुत रोया था। और सोचता रहा यह मेरा साथी पेड़ इसी लिये न बढ़ रहा हो क्योकि मै छोटा था और यदि यह वृक्ष वृद्धि करता तो फ़िर मैं कैसे इस पर घुड़सवारी कर पाता !

मै आज शायद जान पाया हूं इन वृक्षों के महत्व को और इनके लिये मेरे मुल्क में किया गया वह संघर्ष, और अब मेरा प्रेम इनके प्रति और गम्भीर हो गया है।

मैने कई प्रजातियों के वृक्ष रोपे है अपने गांव में किन्तु अभी तक वह इच्छा अधूरी है जो मैने बचपन में सोची थी कि इसी जगह फ़िर एक महुआ का वृक्ष होगा !

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन-२६२७२७

भारतवर्ष

सेलुलर-९४५१९२५९९७

असान अथवा अवसान बीवी और हिन्दू समाज की महिलायें !

मेरे गांव की महिलायें एक पूजा बडी़ आस्था के साथ करती है जिसे “दुरकैयां” के नाम से जाना जाता है असल में मुझे और न ही गांव की महिलाओं को इस शब्द के मायने पता है । किन्तु इस पूजा में एक मुस्लिम महिला का स्मरण किया जाता है जिन्हे असान या औसान बीवी कहते है और यह मान्यता है कि असान बीवी से जो कुछ मागों वह मिलता है। पर ये महिला कौन  है इनका एतिहासिक महत्व क्या है और हिन्दू समाज में ये कब से पूजित है इसका उल्लेख कही नही है। और न ही इन्हे पूजने वालों को कोइ मालूमात है। और लोगों की इसी अनिभिग्यता ने मुझे प्रेरित किया की आखिर यह देवी कौन है जिन्हे हमारा समाज पूजता है।

यहां ये स्पष्ट करना चाहूंगा कि असान बीवी की पूजा सारे उत्तर भारत में होती है जिसमें सात सुहागिन महिलायें आमंत्रित की जाती है उन्हे मिठाई, लाई, आदि ससम्मान खिलाकर उनसे थोडा़-थोडा़ प्रसाद पूजा करने वाली महिला अपने कोछे ( साडी़ का पल्लू) में लेती है। ये पूजा मन्नत पूरी होने पर ही आयोजित की जाती है।

मैने तमाम समाजों की महिलाओं से इस बावत जानकारी ली तो पता चला कि सभी के यहां ये पूजा आयोजित होती है कभी न कभी पर पुजित “बीवी” के  विषय में अनिभिग्यता के अतरिक्त मुझे कुछ नही मालूम हो सका।

शायद असान बीवी की मान्यता बंगाल से चलकर उत्तर भारत में प्रचारित व प्रसारित हुई।

उत्सकता बढ़्ती गयी !!!!

अभी तक जो नतीजे है वह इस प्रकार है की “बीवी” को हिन्दू संस्कृति में “देवी” कहते है और असान बीवी बंगाल में मुस्लिम व हिन्दू समाज में पूजित है इन्हे खतरों व तकलीफ़ों की देवी कहा गया है और इनसे मन्नत मानने से लोगों के कष्ट दूर हो जाते है ऐसी अवधारणा है। बंगाल में इन्हे उद्धार देवी के नाम से भी जाना जाता है और इस में सात महिलाओं को मच्छी – भात खिलाया जाता है और गीत गाये जाते है किन्तू हमारे उत्तर भारत में मिठाई – लाई का प्रचलन है और कहानी सुनाई जाती है। बंगाल की हिन्दू-मुस्लिम आबादी जो एक मिली जुली संस्कृति है में भाषा व शब्दों में अंतर के अतिरिक्त पूजा आदि का प्राविधान मिलता जुलाता है उदाहरण के लिये “बन देवी”  को मुस्लिम समाज “बन बीवी” या जंगली पीर के नाम से संबोधित करती है चिकेन पाक्स की हिन्दू देवी को शीतला देवी कहते है तो मुस्लिम समाज में इन्हे झाला बीवी के नाम से जान जाता है चीजे एक है पर शब्द व रिचुअल्स के तरीके अलग हो सकते है।

कुल मिलाकर हमारा भारतीय समाज हमेशा से बाहर से आने वाले लोगों की भाषा, वेशभूषा, धर्म, खान-पान, और उनकी पंरंपराओं को बेहिचक अपनी इच्छा व सुविधा अनुसार ग्रहण करता गया और धीरे -धीरे ये सभी चीजे हमारे समाज का अभिन्न अंग बनती गयी ।

उपरोक्त संदर्भ में किसी को कोई जानकारी हो तो कृपया अवश्य बातायें….स्वागत है।

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन-२६२७२७

भारत