Akbarअकबर-द साइंटिस्ट

जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने ईजाद किया रिफ्रिजरेशन का सिद्धांत …

फ्रिज का प्रवर्तन भारत भूमि से …

मैनहन गाँव के लोगों ने की अविष्कार की पुनरावृत्ति …

रेफ्रीजरेटर का आविष्कार भारत के बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने सन 1585 से पूर्व में किया जब उनकी राजधानी फतेहपुर सीकरी हुआ करती थी, आइन-ए-अकबरी में अबुल फज़ल ने अकबर के पानी ठंडा करने के तरीके को कई मर्तबा लिखा है अपने दस्तावेज में, सबसे ख़ास बात यह है इस दौर में पूरी दुनिया में अकबर द्वारा ईजाद किया हुआ वैज्ञानिक तरीका कहीं और नहीं मिलता, योरोप और अमरीका में भी लोग बाग़ बर्फ से ही पानी व्  खाद्य पदार्थों को ठंडा व् सुरक्षित रखते थे, अगर मौजूदा विज्ञान की बात करें तो लोगों के घरों में बीसवी सदी के पहले दशक में विकसित रेफ्रीजरेटर पहुंचा, किन्तु इसके आविष्कार के लिए जद्दोजहद सन 1750 के आस पास शुरू हो चुकी थी, कहते है बेंजामिन फ्रैंकलिन ने उस वक्त वाष्पीकरण से तापमान पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रयोग शुरू किए थे, अपने एक रसायन विज्ञानी मित्र जान हैडले के साथ, फ्रैंकलिन के प्रयोगों को आगे बढाया अमेरिका के ही एक वैज्ञानिक ने जिसे ऑलिवर एवैंस के नाम से जानते है, वैसे इन्हें सारी दुनिया में भाप के इंजनों की बेहतरी के लिए जाना जाता है, जैकब पार्किंस को सन 1834 में रेफ्रीजरेटर के एक सफल माडल का पेटेंट मिला, एक ब्रिटिश पत्रकार जेम्स हैरिसन ने सन 1856 में रेफ्रीजरेटर के एक माडल को पेटेंट कराया जिसमें वाष्प-दबाव प्रणाली में ईथर, एल्कोहल और अमोनिया का इस्तेमाल होता था, इसके बाद जो मौजूदा फ्रिज हम देखते है वह सन 1913 में फ्रेड डब्ल्यू वाल्फ़ ने विकसित किया, इसके बाद बहुत से संशोधनों से गुजरा है यह ठंडा करने वाला यंत्र……दुनिया आज इन्ही अमरीकी और ब्रिटिश नागरिकों को जानती है इस मशीन के अविष्कारक के तौर पर….और यह रेफ्रीजरेटर शब्द भी इंग्लिश डिक्शनरी में अठारवीं  सदी में शामिल हुआ…जबकि इस मशीन के आविष्कार के अन्वेषण-कर्ताओं में भारत भूमि की पहल रही, जिसे इतिहास के कुछ पुराने और अप्रसांगिक हो चुके दस्तावेजों में कहा गया है.

कहते है की अकबर सिर्फ एक शासक नहीं थे उन्हें कीमियागिरी से लेकर वास्तुशास्त्र और तंत्र-विद्याओं तक में रूचि थी, और वह हमेशा तकनीकी कार्य करने वाले लोगों के मध्य जाकर स्वयं अपने हाथों से बुनाई कताई से लेकर जंगी साजों सामान के निर्माण में अपनी भागीदारी सुनाश्चित करते थे, अपनी गर्मियों की आराम-गाह जोकि बांस की झोपड़ी होती थी, जिसमे चारोतरफ खुशबूदार खस के परदे बांधे जाते थे और उन पर पानी डाला जाता था ताकि उन खस के पर्दों से गुजरने वाली हवाएं ठंडी हो जाए, इसे तब नैबस्त-गाह कहा जाता था, इस तरह यह शुरुवाती कूलर का माडल हुआ जो हिन्दुस्तान के आम व् ख़ास सभी में खूब प्रचलित रहा….

अकबर द्वारा किए गए इस आविष्कार के सन्दर्भ में अबुल फज़ल ने कहा की दूरदर्शी बुद्धि के उमड़ाव् के चलते जहाँपनाह ने पानी ठंडा करने का साधन उसी शोरे अर्थात बारूद से बनाया जो बहुत हलचल पैदा करने वाला है, और उनके इस आविष्कार से आम व् ख़ास सभी बहुत खुश हुए, यह एक नमकीन लोंदा होता है, उसे छलनी में रखा जाता है और उस पर कुछ पानी छिड़का जाता है, मामूली मिट्टी से अलग कर लिया जाता है, छलनी से जो कुछ छान कर नीचे गिरता है, उसे उबाल लिया जाता है, उसमे मौजूद मिट्टी से अलग कर लिया जाता है और उसके स्फटिक(बरबदंद) बना लिए जाते है, कांसा या चांदी या ऐसी किसी धातु की एक बोतल में एक सेर पानी डाला जाता है और उसका मुहं बंद कर दिया जाता है, एक छलनी में ढाई सेर शोरे में पांच सेर पानी मिलाया जाता है और उस मिश्रण में आधी घड़ी अर्थात १२ मिनट तक उस मुहं बंद बोतल को इधर से उधर घुमाया जाता है, बोतल के अन्दर का पानी बहुत ठंडा हो जाता है, एक शख्स एक रुपये में तीन चौथाई मन से लेकर चार मन तक शोरा खरीद सकता है….

भारत के पारंपरिक ज्ञान और उसकी प्राचीन सभ्यताओं में विज्ञान की समृद्धता को कोइ नकार नहीं सकता, दरअसल अबुल फ़जल ने अकबरनामा के तीसरे हिस्से में जिसे आईने अकबरी कहते है, उसमे भारत के प्राचीन विज्ञान का विवरण है, जाहिर है कि अबुल फ़जल अकबर के नवरत्नों में से एक थे और उन्हें अपने मालिक के लिए यह विशाल दस्तावेज तैयार करना था नतीजतन अकबर के किरदार की मुख्यता और भारतीय ज्ञान को अकबर से जोड़ कर प्रस्तुत करना उनके लिए लाजमी था, इतिहास साक्षी है की राजाओं के दरबारी कवियों ने बहुत ही सुन्दर व् ज्ञान से परिपूर्ण रचनाएं लिखी परन्तु उन रचनाओं में राजा के प्रति उस कवि की कर्तव्य-निष्ठा तो रहती ही थी साथ में चापलूसी और अतिशयोक्तियों से भरे अल्फाजों की दास्ताँनें भी, इसलिए निरपेक्षता की उम्मीद कम ही होती थी, इसलिए इन सम्राटों के दरबारी दस्तावेजों में लिखे हुए किस्सों से इतिहास को भांप तो सकते है परन्तु स्पष्ट कुछ भी देख पाना मुमकिन नहीं होता है इसीलिए इतिहास हमेशा से रिसर्च का विषय रहा है, की उस काल के हालातों का निरपेक्षता से जायजा लेकर उसे दोबारा लिखा जाए ताकि लेखक की भावन जो लालच, और अंध-भक्ति से लिपटी हुई हो तो उसे छान कर उस निर्मल अतीत को देखा और गुना जा सके…….

हम सभी जानते है की रासायनिक अभिक्रियाओं की शुरुवात उष्मा के फैलाव व् उसके जज्ब होने के कारण होती है, वाष्पन से तापमान परिवर्तित होता है, यह तथ्य भले शहंशाह न जानते हो और न ही वे मैनहन गाँव के किसान पर इस रासायनिक अभिक्रिया से पानी को ठंडा कर लेने की जुगत उन्होंने हासिल की…

  बारूद यानि सल्फर, चारकोल और पोटेशियम नाइट्रेट का मिश्रण, इसका आविष्कार नवी सदी में चाइना में माना जाता है,परन्तु वास्तविकता में साल्टपीटर यानि बारूद का आविष्कार भारत में हुआ, जीन बैपटिस्ट टेवर्नियर ने आसाम में इसके ईजाद की बात कही है…  मुख्यता प्राकृतिक तौर पर यह गुफाओं की दीवारों पर चमगादड़ों की ग्वानों (मल -मुख्यता: यूरिक एसिड) के साथ मिला हुआ होता है, जिसे शुद्ध किया जाता है, ताकि इससे शुद्ध पोटेशियम नाइट्रेट निकाला जा सके और उसे गर्म करके क्रिस्टल्स के तौर पर रखा जा सके, पोटेशियम नाइट्रेट, अमोनियम नाइट्रेट, और यूरिया नाइट्रेट ये सभी विस्फोटक पदार्थ है, सभी में नाइट्रोजन तत्व विद्यमान है किसी न किसी रूप में, अमेरिकन सिविल वार के दौरान वहां लोगों ने एक देशी विधि का इस्तेमाल किया जिसे फ्रेंच मेथड भी कहते है, घरों से कुछ दूर  खाद (पांस), भूसा, और मूत्र मिलाकर कई महीनों के लिए छोड़ देते थे, बाद में राख और पानी से उसे छान कर अलग कर लेते थे….कुलमिलाकर यूरिया का किसी न किसी रूप में बारूद बनाने में इस्तेमाल किया जाता रहा, वही यूरिया जो जीवों की उपापचयी क्रियाओं द्वारा किडनी में अपशिष्ट पदार्थ के तौर पर निर्मित होती है साथ ही कुछ अन्य तत्व पोटेशियम, मैग्नीशियम आदि भी उत्सर्जित होते है जीवों के शरीर से, बताते चले की यह यूरिया एक ऐसा कार्बनिक योगिक है जो प्रयोगशाला में पहली बार बनाया गया बावजूद इस मिथक के की कोई भी कार्बनिक योगिक प्रयोगशाला में निर्मित नहीं हो सकता है, और इस यूरिया को बनाने वाले थे एक जर्मन वैज्ञानिक फ्रेडरिक वोह्लर……

दरअसल पोटेशियम नाइट्रेट, या यूरिया नाइट्रेट ये दोनों विस्फोटक गुणों से युक्त है और इन दोनों के देशी निर्माण की विधियों में यूरिया का प्राकृतिक स्रोत यानि मूत्र का इस्तेमाल होता रहा है, अकबर का बारूद (चारकोल, सल्फर और पोटेशियम नाइट्रेट) और हमारे गाँव के लोग जो यूरिया का इस्तेमाल करते है चीजों को ठंडा करने के लिए, दोनों में नाइट्रोजन तत्व व् वाष्पीकरण से तापमान में परिवर्तन की समानता है….पूरी दुनिया में 1585 के पहले कही भी रासायनिक प्रक्रियाओं से पानी को ठंडा कर पाने की कोइ विधि जानकारी में नहीं है, तो यह साबित हो जाता है की अबुल फ़जल के जहाँपना जलाल्लुद्दीन मुहम्मद अकबर ही इस ईजाद की हुई तकनीक के मालिक है. इसका जिक्र अशोक बाजपेई व् इरफ़ान हबीब ने भी अपने शोध में किया है.

तकनीक ने जब अपने पाँव फैलाए तो हासिए के आदमी तक वह पहुँची, उस तकनीक का लाभ भले वह आर्थिक कारणों से न उठा पा रहा हो किन्तु उसके मष्तिष्क में उस तकनीक का जादू जरूर पैबस्त हो गया, नतीजतन उसने अपने देशी तरीके ईजाद किए उस तकनीक की नक़ल में …जरूरत ईजाद कर लेती है वो तरीके जो आसानी से मुहैया हो सके इंसान को …और इसी जरूरत ने हमारे गाँव के लोगों को प्रेरित किया बिना किसी मशीनी रेफ्रीजरेटर के पानी, कोकोकोला और बेवरेज को ठंडा करने की तकनीक को ईजाद करने के लिए, वे अकबर की तरह शोरा यानि गन पाउडर का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि वह सर्व सुलभ नहीं, उन्होंने एक नया तरीका खोजा यूरिया से पानी ठंडा करने का, उन्हें उष्मा गतिकी के नियम भले न पता हो और न पता हो पदार्थों के वाष्पीकरण से तापमान में परिवर्तन की प्रक्रिया किन्तु उन्हें यह मालूम चल गया की यूरिया में पानी मिला देने से उसमे बंद बोतल में कोई भी चीज रख दे तो वह कुछ मिनटों में ही ठंडी हो जाती है बर्फ की तरह …जाहिर है ग्रामीण क्षेत्रों में हर किसान के घर यूरिया मौजूद होती है और गर्मियों में गाँव से दूर खेतों में काम करता आदमी जिसे प्यास में ठन्डे पानी की जरूरत भी और इसी जरूरत ने यह तरीका ईजाद करवा दिया !

अकबर की इस खोज में भले उनके किसी जंगी सिपाही की तकरीब हो यह, पर नाम जहाँपनाह का ही जोड़ा जाएगा उनके नवरत्न अबुल फ़जल द्वारा, या फिर यह ईजाद वाकई में जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर का ही हो, क्योंकि उनकी बौद्धिक अमीरी का जलवा तो हिन्दुस्तान ही नहीं बल्ख बुखारा से लेकर लंदन तक था, और हमारे गाँव मैनहन के लोगों की यह तरकीब जो मैं आप सब को सुना रहा हूँ, हो सकता है कालान्तर में मेरे नाम से ज्यादा जोड़ दी जाए क्योंकि दस्तावेजीकरण करने वाले या करवाने वाला ही प्रमुख होता है, शुक्र है की मुग़ल शासन में अबुल फ़जल जैसे लेखकों ने अकबरनामा जैसा वृहद दस्तावेज तैयार किया और आज हम इस दस्तावेज के दरीचों से कई सदियों पहले की चीजों को देख सकते है.

DSCF3458कृष्ण कुमार मिश्र

संस्थापक संपादक- दुधवा लाइव जर्नल

मैनहन

खीरी

भारत

9451925997

एक तिनका 

अयोध्या  सिंह  उपाध्याय  “हरिऔध”

उपाध्याय जी इस रचना से मैं परिचित हुआ जब मैं बहुत कम उम्र का था शायद पाठशाला जाने की शुरूवात भी नहीं हुई थी , किन्तु अपने पिता जी के मुख से ये गीत कई बार सुना था मायने पता नहीं थे पर बालक मन को इस कविता के अनजाने भावों ? ने प्रभावित जरूर किया था , प्रयोगवादी स्वभाव मुझमे  हमेशा से रहा  जो शायद मुझे विरासत में मिला है ,  यही वजह थी की इस कविता की पंक्तियाँ  जो मुझे याद हो गयी थी  उनका प्रयोग भी मैंने किया था , आप सभी हंस  लोगें  पर मैं बताऊंगा जरूर ….जो  पंक्तिया रटी  थी हमने  …..

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

 

और मैंने निश्चय किया की इस बार जब आंधी आयेगी तो मैं अपने घर की मुड़ेर पर तन कर जरूर खडा होउंगा  रोआब  से! ऐसा हुआ भी की मैं इस कविता को गाते हुए उस  धुल भरी आंधी में  जीने  की सीढिया  लांघता हुआ दरवाजे के ऊपर अपनी छत पर खडा हुआ “मुझे वही मेरी मुड़ेर  लगी थी ” और आँखों को पूरा खोलकर उस आंधी  की दिशा  की तरफ खडा हुआ  की आखिर कभी न कभी तो कोइ तिनका आँख में गिरेगा …ऐसा हुआ भी आँख दर्द के मारे गुस्से!! में लाल हो गयी मेरी….पर मुझे कोइ तकलीफ नहीं हुई क्योंकि मैं ऐसा चाहता था

 

….आज सोचता  हूँ काश  पिता  जी के मुख से निकली उस कविता को पूरा  कंठस्थ किया होता अर्थ के साथ  तो ऐसा बिलकुल नहीं करता और जिन्दगी का जो बेहतरीन अर्थ उस कविता में है उसे तब ही समझ गया होता  बजाए एक उम्र गुजरने के बाद ! …अधूरे शब्दों  की सार्थकता  और उसका प्रयोग तो हासिल कर लिया था तब मैंने  पर उसके भावों से अपरचित  था ….आज  लगा  की  ये कविता किसी के भी जीवन को सार्थकता  दे सकती है .

 

…अयोध्या सिंह  उपाध्याय  का जिक्र करना भी जरूरी समझता हूँ ..गाजीपुर  की  जमीन  की पैदाइश एक सनाढ्य  ब्राह्मण कुल में , पिता ने पूर्व में ही सिख धर्म को अपनाया था सो  अयोध्या उपाध्याय  के मध्य सिंह  शब्द ने अपनी जगह बना ली …आजादी के पांच महीने पूर्व ही इनका देहावसान हो गया …….

 

इस कविता  ने जीवन के मूल्यों  को जिस  संजीदगी से परिभाषित किया है , उसे समझ लेना और आत्मसात कर लेना ही एक साधारण व्यक्ति को निर्वाण दे सकने में सक्षम है …..

 

इस कविता को मैनहन  के इस  पन्ने  में अंकित कर रहा हूँ , अपने पिता  की स्मृति में ..की जीवन के उस मूल्य को उन्होंने मुझे  मेरे बचपन में ही बता देने की कोशिश  की  थी ..जिसे मैं बहुत  बाद में  शायद समझ  पाया !..कृष्ण

 

चूंकि  ये  दो  पंक्तियाँ  बमुश्किल  मेरी स्मृति में थी मैं पूंछता भी था कभी  कभी अपने मित्रों से पर जवाब नहीं मिलते थे ..कभी बहुत कोशिश भी नहीं की ..अचानक  एक दिन कई बार कुछ शब्दों  के हेर फेर  के साथ  खोजने पर गूगल ने “एक तिनका” मुझे लौटा दिया जो बचपन में कही खो गया था …जी हाँ अयोध्या  सिंह  उपाध्याय  “हरिऔध” का वह एक तिनका …जाहिर हैं खुशी तो होगी और बहुत हुई …आप सभी से भी ये एक तिनका साझा कर रहा  हूँ  इस उम्मीद के साथ की इस तिनके की ताकत कभी न भूलिएगा …..

 

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मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब ‘समझ’ ने यों मुझे ताने दिये।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

 

 

कृष्ण कुमार मिश्र  ऑफ़ मैनहन (एक तिनका जो अभी भी है मेरी आँख में ! मैं चाहता भी नहीं की ये निकले, ताकि स्वयं का भान रहे सदैव  ..भूलूं नहीं … )

मैनहन

उत्तर भारत के एक गाँव की कहानी जो मैनहन विलेज ब्लाग के माध्यम से आप सभी के समक्ष रखने की कोशिश…परंपरा, इतिहास, धर्म, किबदन्तियां, ग्रामीण कहावते, कृषि, पारंपरिक ज्ञान, वनस्पतियां और जीव-जन्तु सभी का सिज़रा पेश करता है- मैनहन विलेज, जिसके बारे में हिन्दुस्तान दैनिक ने कुछ यूँ लिखा है ! 

कृष्ण कुमार मिश्र

© Krishna Kumar Mishraएक हमारे इलाके की बात याद आ गयी

जब बात चली एक हमारे नजदीकी शख्शियत की जिनका अचानक देहावसान हो गया है, और उनके खानदान के चील-बिल्लौआ टाइप के लोग उनकी अकूत संपत्ति का कैसे उपभोग करेंगे…इस सवाल ने मेरे शातिर दिमाग में एक किस्सा घुमड़ गया…आप सभी सुने…वैसे तो ये किस्सा मैने अपने अनुज समान मित्र को सुनाया था पर जरूरी समझा की आप से भी साझा करू !

सुने….

ध्यान से

कि एक बार मितौली के समीप एक गांव में ठाकुर साहब रहते थे

उनका बकरा कोई उठा ले गया…

ठाकुर साहब का दबदबा था सो

जल्द ही उन्हे पता चल गया

कि बुधुवा पासी ले गया है…..

साला बड़ा खुरापाती था

सामने तो ठाकुर साहब की जी हजूरी करता था

पर मौका लगते हाथ साफ़ कर गया

ठाकुर साहब ने बहुत खोजा न तो साला बुधुवा मिला और

न ही बकरा

अब ठाकुर साहब बहुत परेशान

शाम को खाना न खाये

ठकुराइन थाली लिए- लिए घूमे

जिसमें गोस्त इत्यादि सब था

पर ठाकुर को एक ही बात खाये जा रही थी

जो उन्हे खाने नही दे रही थी

पूछो कौन सी बात ?

वो बोले ठकुराईन

मुझे इस बात का दुख नही कि साला बुधुवा खसी बकरा  चुरा ले गया है…..

मलाल इस बात का है..कि वहु सार बेझरी (चने, बाजरा, मक्का इत्यादि  का आटा)  की रोटी कि साथ मस्त बकरे का गोस्त खाई……

!!!!!!!!!!!!!!!

इति

आप को पता होगा उस दौर में सम्पन्न लोग ही गेहूं की रोटिया खाते थे..गरीबो को बाजरा, जौ, मक्का और चना नसीब होता था

……

कृष्ण कुमार मिश्र

प्रेम (मन) की कैसी यह विडम्बना….
खीरी जनपद की निघासन तहसील के शंकरपुर गाँव का एक दीवाना जिसने बेसिक शिक्षा स्कूल में तैनात नवीन शहरी शिक्षिका के प्यार में अपने सीने पर बाँके से आठ वार किए, और बोला अगर आप ने मेरे प्रेम को स्वीकार नही किया तो अगली बार अपना सिर काट कर आप के चरणों में रख दूंगा..वाह री दीवानगी..एकतरफ़ा प्रेम का यह वीभत्स रूप..इसका कारण क्या शहरों से आई वे फ़ैशन परस्त युवतियां है,  जिनके अक्स में ये गांव के युवक करीना कपूर या बिपासा कों झांकने की कोशिश करते है।

फ़िलहाल युवक अस्पताल में है, और डी०एम०, एस०पी० को खत लिख चुका है कि यदि उन्होंने उसका प्यार उसे नही दिलाया तो वह अपना सिर काट लेगा…अफ़सरान परेशान है, फ़िलहाल शिक्षिका का अन्यन्त्र तबादला कर दिया गया है…

सुना है कि वह मुस्काराती है और अपने हुस्न के गरूर में गाफ़िल है..बेचारा वह युवक…अभी आला अफ़सरान उस युवक के पत्रों को मार्क कर छोटे अधिकारियों को भेज रहे है, अब वे क्या करें इस भयानक प्रेम की त्रासदी से कैसे निपटे..क्या अफ़सरों का दिलों पर अख्तियार है ?

….खैर एक शिक्षिका शिक्षिका के लिबास में दिखे और आचरण में भी बजाए इसके कि वह किसी फ़िल्मी नायिका का अक्स लिए इन बंजर जमीनों में खेत-खलिहानों में घूमें स्कूटी पर मुंह में दुपट्टा लपेटे किसी डाकू-हसीना की तरह..ऐसे में यदि हमारे गांव का कोई गबरू जवान इस कदर दीवाना बन बैठे तो उसमें उसकी क्या खता…!!.

..सुन्दर महिलाओं से क्षमा प्रार्थना के साथ आपका कृष्ण

कृष्ण कुमार मिश्र

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….ताजमहल जिसका नामो-निशान मिट जाता !

नष्ट हो जाता मध्य-कालीन भारत का यह अदभुत व सुन्दर अतीत

भारत के इतिहास की एक झांकी ताज के बहाने…

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से..!

साहिर लुधियानवी (१९२१ – २५ अक्टूबर १९८०) की गज़ल की कुछ लाइनें पेश है, जिन्हे मेरे अजीज नें मुझे भेजी, और मैं बावस्ता हुआ इस एहसास से, उनके शब्दों में मुफ़लिसी की पीड़ा, मायूसियत के भाव, हीनता की विडंबना को बड़ी खूबशूरती से पिरोया है, उनकी इन पंक्तियों के सहारे मुझे खयाल आया कुछ किस्सों का जो जुड़े है इस बेहतरीन इमारत से, और भारतीय पुरातात्विक मसलों सें ।

कौन नही जानता इस कब्र को जिसमें मोहब्बत के एहसासात सफ़ेद मार्बल के तौर पर गुथे हुए हैं इस आलीशान इमारत में, जो आज एक मशहूर पर्यटन स्थल, जिससे जुड़ी है तमाम कहानी किस्से कुछ झूठे कुछ सच्चे ! पर मैं बात करूंगा कुछ चुनिंदा वाकयात की जो अहम हैं।

लार्ड विलियम हेनरी कैन्डेविश बेन्टिक, सती प्रथा, और ताजमहल

ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार के गवर्नर जनरल (1828-1835) लार्ड विलियम हेनरी कैन्डेविश बेन्टिक (1774-1839) ने ताजमहल को ढहाने के आदेश जारी कर दिए थे, और उसके निर्माण में लगी तमाम बेशकीमती चीजों को बेच देने की मंशा जाहिर की थी। खासतौर से इमारत में इस्तेमाल हुए संगमरमर को। यह वही शख्स है जिसने भारत में सती प्रथा पर पूर्ण प्रतिबन्ध (बंगाल प्रेसीडेंसी में) का फ़रमान जारी कर दिया था, वह दिन चार दिसम्बर 1929 ई० था। ताजमहल हो नष्ट कर देने की चर्चा उस वक्त इंग्लैंड से लेकर पूरे हिन्दुस्तान में थी, बेन्टिंक ने आगरा फ़ोर्ट में अलग हुए संगमरमर की विक्री कर दी थी, और ताजमहल को एक फ़ालतू इमारत मानते हुए उसे भी ढहा कर संगमरमर की नीलामी का आदेश पारित कर दिया था, बताते है, आगरा में नीलामी को लेकर कुच दिक्कते आई जिसके चलते गवरनर जनरल ले अपना इरादा बदल दिया। इस वाकये का पुख्ता जिक्र ई० वी० हैवल की पुस्तक  “इंण्डियन स्क्लप्चर एंड पेंटिंग” में मिलता है उन्होंने लिखा कि गवर्नर जनरल बेन्टिक पूरी तरह से ताजमहल को तबाह कर उसके संगमरमर को नीलाम कर देना चाहते थे, किन्तु आगरा फ़ोर्ट के संगमरमर की नीलामी से असंतुष्ट होने के कारण उन्होंने अपना इरादा बदला था। जी०टी० गैरट ने हैवल के शब्दों से अधिक तीक्ष्णता से इस बात को कहा। काफ़ी बाद में सन 1948 ई० में एच०जी रालिन्सन ने तो कमाल ही कर दिया, उन्होंने कहा कि कम्पनी सरकार के समय के लोग बिल्कुल असभ्य व मूर्ख थे, नतीजतन उनसे ऐसे ही फ़ैसलों की उम्मीद की जा सकती थी, जो सिर्फ़ सत्ता को स्थापित करने के लिए थी।

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भारतीय पुरातत्व सरंक्षण (ASI)

सन 1904 में लार्ड कर्जन के भारत आगमन पर पुरातात्विक महत्व की चीजों को पुख्ता सरंक्षण प्राप्त हुआ।, कर्जन स्वयं एक विरासत प्रेमी थे, और उन्होंने स्मारकों (निशानियों, यादगार) के सरंक्षण का कानून पारित किया। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अन्तर्गत कार्य करने वाला संगठन है, जो पुराने स्मारकों के सरंक्षण व संवर्धन में पिछले 100 वर्षों से अधिक समय से कार्य कर रहा है। माना जाता है, ए०एस०आई० की नींव सन 1764 में पुरातत्ववेत्ता विलियम जान के प्रयासों से हुई, जब इन्होंने  एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना की थी। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया की औपचारिक स्थापना सन 1871 में की गयी। इसकी स्थापना का श्रेय अलेक्जेंडर कनिंघम को जाता है, जो उस वक्त ब्रिटिश इण्डिया के बंगाल में इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे। और अलेक्जेंडर कनिंघम को ही ए०एस०आई० का प्रथम डाइरेक्टर जनरल बनने का गौरव प्राप्त हुआ, आज से ठीक 140 वर्ष पूर्व। पुराने स्मारकों, नवीन खुदाई स्थलों से प्राप्त जानकारियों के विषय में संकलन व प्रकाशन ए०एस०आई० द्वारा समय समय किया जाता है, इसी संस्था के सन 1924 में डाइरेक्टर जनरल जॉन मार्शल द्वारा सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज की औपचारिक घोषणा सन 1924 में की। यह खोज भारतीय इतिहास की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों में से एक थी, इसी खोज ने मार्शल को रातो रात ब्रिटेन और भारत के अतिरिक्त सारी दुनिया में हीरो बना दिया। प्रत्येक राज्य में ए०एस०आई के कार्यालय मौजूद हैं, जहां से सरंक्षण की गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है। सन 1902 में जॉन मार्शल द्वारा पुरातात्विक वस्तुओं के सरंक्षण व संवर्धन में बनाई गयी नीति इतनी बेहतर व दूरगामी सोच का परिणाम थी कि हम सब आज भी उसी निति के कायल है, “किसी भी ध्वंश पुरातात्विक वस्तु का पुनर्निर्माण तब तक वर्जित है, जब तक कुशल कारीगर व तकनीक और उचित निर्माण सामग्री प्राप्त न हो, जो उस ध्वंश प्राचीन वस्तु को हुबहू निर्मित कर दे , अन्यथा उस प्राचीन स्मारक आदि को यथा स्थिति में ही सरंक्षित रखा जाए”।

किन्तु ASI के तमाम नियम कानूनों के बाद ASI द्वारा सरंक्षित स्थलों पर बेन्टिक के उस नीति का खुला उल्लंघन हो रहा है, जो पुरातात्विक महत्व की चीजों के लिए मुफ़ीद है, लखीमपुर खीरी के ओयल (ब्रिटिश-भारत की एक रियासत) द्वारा बनवाये गये विश्व प्रसिद्ध मेढक मन्दिर व अन्य प्राचीन इमारतों के जीर्णोंद्धार के नाम पर सीमेन्ट बालू व मौरंग का प्रयोग कर दिया गया, जो कि उन पदार्थों से बिल्कुल भिन्न है, जिनसे ये दीवारे, कलाकृतियां निर्मित हुई थी, यह मेढ़क मन्दिर उत्तर प्रदेश में पुरातत्व विभाग द्वारा आर्कियोलाजिकल साइट के रूप में दर्ज है। यानि हम सही बात को भी स्वीकार करना नही जानते जो हमारे लिए और हमारे एतिहासिक गौरव के लिए लाभप्रद है।

ऐसे हुआ ब्राह्मी लिपि व सम्राट अशोक के फ़रमानों का पर्दाफ़ास

ब्राह्मी लिपि को पहली बार 1830 में समझा गया,  ए०एस०आई० संस्था के सचिव जेम्स प्रिंसेप द्वारा। इस लिपि को पढ़ लेने व समझनें की खोज से भारतीय अतीत के तमाम रहस्य प्रकाश में आये। सम्राट अशोक के राजाज्ञा को जाना गया इस लिपि को समझने के पश्चात, यह एक अदभुत खोज थी।

मौजूदा समय में एक आकलन के मुताबिक भारत में 50,000 स्मारक है, जबकि  ए०एस०आई० द्वारा चिन्हित व सरंक्षित स्मारकों की संख्या मात्र 7000 (राज्य व केन्द्र द्वारा संयुक्त प्रयास)  हैं। ये दुर्भाग्य ही है कि स्वंत्रता प्राप्ति के 62 वर्षों के उपरान्त भी हम विरासत के सरंक्षण में हम अंग्रेजों से बहुत पीछे हैं। और उन्ही के अध्ययन की बार-बार नकल कर अपने आप को ज्ञानी व इतिहासकार साबित करने की नाकाम कोशिशे करते रहते है !

विरासत के प्रति हमारा यह कैसा मोह है, कि अपने अतीत को महिमा मंडित करने से कही नही चूकते, झूठ पर झूठ बोल कर स्वयं और अपने गरीब व अनपढ़ पूर्वजों को महान बनाने की चेष्टा करते है, बल्कि तमाम खण्ड काव्यों की रचनायेंभी, जिनमे अतिशयोक्ति के अतिरिक्त कुछ नही ! अफ़सोस कि हम ईमानदारी से अतीत को दर्ज करना और उसका सरंक्षण करना आज भी नही सीख पायें, उन मास्टर्स से भी नही जिन्होंने हमारे मुल्क पर सदियों राज किया ।

क्या हम इतिहास की महत्ता को स्वीकार कर कुछ करते है, अपने आस-पास के उस वर्तमान का संकलन, जो कल को इतिहास बनने वाला है ?

जिसका अतीत ही अनिश्चित, अनिर्णित, अस्पष्ट व अज्ञात हो,  उसके वर्तमान व भविष्य का ईश्वर मालिक !

कृष्ण कुमार मिश्र

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन हाउस

77, कैनाल रोड, शिव कालोनी

लखीमपुर खीरी-262701

भारतवर्ष

email- krishna.manhan@gmail.com

प्रकाश स्तंभों की कहानी

हमारी राहों को रोशन करने वाले इन प्रकाश स्तंभों की एक लघु-कथा

Image source: Wikipedia
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उस रोज एक अंग्रेजी अखबार में मीनार नुमा आकृति देखी जिसे लाइट हाउस यानि प्रकाश स्तंभ कहते हैं, तो मन किया चलों कुछ पढ़ा-लिखा जाए इन आकृतियों पर जो हमारें लोगों को शताब्दियों से राह दिखाने का काम करते आए हैं। चूंकि हम नदियों के प्रदेश में रहने वाले लोग समन्दर की हलचलों से नावाकिफ़ ही रहे, बस पत्र-पत्रिकाओं और टी०वी० आदि में उन विशाल लहरों, जंजीरों, जहाजों और प्राचीन प्रकाश स्तंभों के किस्से कहानी सुनते आयें थे।

फ़िर भी चलिए हम बात कर लेते है उन गाइड की जो हमारें लोगों को समन्दर में राह दिखाते रहे हैं….वैसे भारतीय उप-महाद्वीप में मौर्य काल  बौद्ध कालीन शासन व्यवस्था में प्रकाश स्तंभों के निर्माण का जिक्र है, किन्तु योरोपीय व्यापारियों, के भारत आने पर जिन लाइट हाउस का निर्माण हुआ उनका विस्तृत प्रामाणिक इतिहास मौजूद है।  हमारी राहों को रोशन करने वाले इन प्रकाश स्तंभों की एक कथा…..

हमारे धरती पर प्रादुर्भाव होने से और खात्में तक तमाम लाइट हाउस हमारा मार्गदर्शन करते हैं, वह फ़िर चाहें समन्दर के किनारे खड़े ईंट-गारे से बनी ऊंची मीनारें हो जिनके शिखर पर हो रही रोशनी नाविकों को मंजिल तक पहुंचानें में मदद करती हैं, या फ़िर कोई इन्सान हो जो दिगन्तर बन हमें राह दिखाता इस जीवन के पथ पर…या फ़िर वह कोई वस्तु जो हमारी मंजिल के मध्य स्थिर होती है, और आसरा देती है, कि अब मंजिल दूर नही….तो ये है अपने अपने लाइट हाउस…..। लेकिन हम बात करेगें उन ऊंची इमारतों की जिनमें कोयला, लकड़ी, केरोसिन, खाद्य तेल, व्हेल के शरीर से प्राप्त तेल (वसा) गैस और विद्युत से तीव्र प्रकाश किया जाता था, और वह प्रकाश नाविकों का पथ प्रदर्शन करता था, तकनीक के विकास के साथ साथ प्रकाश स्तंभों से निकलने वाले प्रकाश की तीव्रता में भी गजब का इज़ाफ़ा हुआ, लेन्स आदि की मदद से प्रकाश को अत्यधिक तीव्रता से फ़ोकस किया जाता था,  ताकि नाविक अपनी नाव समुन्द्र के किनारे ला सकें, या फ़िर आगे का रास्ता तय कर सके। दरसल ये लाइट हाउस अपनी एक खासी पहचान रखते है, आकार, ऊंचाई, तीव्र रोशनी के जलने-बुझनें के मध्य का अन्तर, और दिन के समय प्रत्येक लाइट हाउस पर किया गया रंग-रोगन नाविकों को यह जानने में मदद करता है, कि यह लाइट हाउस कौन सा है, यानि नाविक कहां पर है, और यदि वह यहां से आगे जाना चाहे तो कितनी दूरी पर अगला स्थान मौजूद इसका अन्दाजा लगया जा सकता था।

शताब्दियों से यह लाइट हाउस लोगों को राह दिखाते आयें, आधुनिक विज्ञान में राडार आदि प्रणालियों से इन लाइट हाउसों का महत्व अवश्य कम हुआ है पर यह अनुपयोगी नही है, नतीजतन भारत सरकार का डाइरेक्टोरेट जनरल ऑफ़ लाइट हाउसेज एण्ड लाइट सिप्स संस्था स्थापित हैं, जिसके द्वारा सभी लाइट हाउस एंव लाइट सिप्स का नियन्त्रण व देखभाल की जाती हैं। विभिन्न देशों में इसका अपना-अपना महत्व हैं।

अमेरिका में लाइट हाउस के प्रति जो स्नेह है वह शौक के रूप में तब्दील हो चुका है, वहां प्रकाश स्तंभों के सरंक्षण व अध्ययन के लिए तमाम संस्थायें व कल्ब स्थापित किए जा चुके हैं, और लोग लाइट हाउसों का भ्रमण व अध्ययन करते है इस भावना के साथ कि कभी उनके पूर्वजों को इन्ही प्रकाश स्तंभों ने राह दिखाई होगी, तब उन्होंने अमेरिका की धरती पर पहली बार कदम रखा होगा। चूंकि अमेरिकी महाद्वीप पर अत्यधिक लोग योरोप, अफ़्रीका और एशिया से आकर अपनी अपनी कालोनी बसाई, और उस वक्त समुन्द्री मार्गों से ही यी आवागमन हुए जिनमें ये लाइट हाउस ही उन्हे राह दिखाते थे,  किनारे पहुंचाते थे, और उनका इस धरती पर पहला इस्तकबाल भी इन्ही प्रकाश स्तंभों ने ही किया था।   यही वजह है कि अमेरिकी इन प्रकाश स्तभों के प्रति अगाध प्रेम रखते है, और इनमें अपने पूर्वजों के प्रथम आगमन का स्मरण करते हैं।

कहा जाता है दुनिया का पहला लाइट हाउस अलेक्जेन्ड्रिया में स्थित है, जिसे इजिप्ट के शासक टाल्मी द्वितीय ने तीसरी शताब्दी में बनवाया था। कई शताब्दियों तक यह दुनिया की सबसे ऊंची इमारत का दर्जा हासिल रहा, और पुरानी दुनिया में इसे सात अजूबों में से एक माना जाता था। भारत में सर्वप्रथम  तमिल साहित्य “सिलाप्पाडिगरम” में मिलता है, कावेरीपट्टिनम में एक खूबसूरत प्रकाश स्तंभ का उल्लेख। भारत में स्बसे प्राचीन व सक्रिय प्रकाश स्तंभ फ़ाल्स पाइन्ट उड़ीसा में है। भारत की समुन्द्री सीमायें सात जनपदों के अन्तर्गत हैं, मुम्बई, कोची, चेन्नई, विशाखापट्टनम, कोलकाता और पोर्ट ब्लेयर। इस समुन्द्री सीमा की ल० 7517 कि०मी० हैं। भारत सरकार के जहाजरानी मन्त्रालय नें पर्यटन के दृष्टिकोण से 13 प्रकाश स्तंभों को विरासत के रूप में सरंक्षित किया जायेगा जिसमें 300 करोड़ रूपयें की अनुमानित राशि खर्च की जायेगी।

इन प्रकाश स्तंभों के साथ जो मानव-निर्मित हैं, के अतिरिक्त हमें उन प्रकाश स्तंभों को भी कभी नही भूलना चाहिए जो सदियों से यूं ही हमे राह दिखाते आ रहे है, अडिग, अनवरत, फ़िर चाहे वह उर्जा का केन्द्र सूर्य हो जो पूरब-पश्चिम का भान कराता है, या सुबह पूर्व दिशा में उगने वाला शुक्र तारा, जो सुबह की दस्तक की खबर के साथ पूरब दिशा को बतलाता है। ये चाद सितारे, प्रकृतिक सरंचनायें, और पूर्वजों से प्राप्त बोध हमें जीवन के पथ पर अनवरत चलते रहने की प्रेरणा देता है और हमारे साथ साथ चलता है पथ-प्रदर्शक के रूप में…हमें अपने-अपने इन लाइट हाउसों को विस्मृत नही होने देना है, क्योंकि ये हमें हर पल राह बतलाते के साथ-साथ हमारे भीतर को भी दैदीप्तिमान करते है।

….तो आप ने सोचा कि आप का लाइट हाउस कौन है?

भारत के प्रकाश स्तंभों के बावत जानकारी हासिल करने के लिए यहाँ क्लिक करें।

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन हाउस

77, कैनाल रोड शिवकालोनी लखीमपुर-खीरी-262701

भारत

कही ककरहा ताल सरोवर निर्माण की अदभुत परंपरा तो नही !

कल रात में खीरी के एक गांव छाऊछ जो शहर से जुड़ा हुआ है, में मैं मेरे मित्र हिमाशु तिवारी के घर पर था, अलाव जल रहा था और मेरी गुफ़्तगू चाचा श्री प्रकाश चन्द्र तिवारी जी से शुरू ए हुई मामला पौराणीक बातो तक गया और फ़िर गहराई लेते हुए महाभारत काल तक, कई चीज़े सामने आई जिनसे मै बिल्कुल अनिभिज्ञ था, इस शब्द के बारे में मेरा मानना है, कि अनिभिज्ञता ही जीवन में उल्लास और संवेदनशीलता लाती है, और जिज्ञाशा भी ! नही तो हम बुद्ध हो जाये और संसार की व्यवस्था देवलोक जैसी किसी व्यवस्था में तब्दील हो जाये और यह भयानक परिवर्तन कैसे परिणाम देंगा यह सोच कर मै विचलित हो जाता हूं खैर बात शब्दों की हो रही है ।

छाऊछ में मध्यकाल के किसी राजा की गढ़ी के अवशेष है किन्तु उनका इतिहास अब विस्मृत हो चुका है।

रानी विजया कुंवरि आफ़ महेवा

यही मुझे मालूम हुआ कि लखिमपुर में बेहजम बस अड्डे के पास एक पक्का तालाब और एक सुन्दर बगीचा जिसमें एक खूबसूरत निवास स्थान बना है आज वह मन्दिर का रूप ले चुका है किन्तु संगमरमर से सजाया ये सरोवर और इमारत कभी महेवा रियासत की रानी विजया कुंवरि का प्रसाद हुआ करता था और यह सरोवर उनके जल क्रीड़ा का स्थान किन्तु उनके बनारस चले जाने के बाद उनकी जमीने जिन्हे उन्होने ने अपने सेवकों के हवाले कर दी थी और एक सन्त ने इसे मन्दिर का रूप दे दिया।

इतिहास की ये झलकियां मुझे और जानने की जिज्ञासा की ओर दौड़ने को कह रही है। मैं जब उस जगह पहुंचूगा तो आप सब को मिलूंगा एक नई कहानी के साथ!

वालदा

इस शब्द को जानने से पहले बग्गर शब्द को जान लेना जरूरी है, बग्गर गांवों में प्रचलित शब्द है जो उस स्थान को कहा जाता है जहा मवेशी पाले जाते है और उनके खाने आदि की व्यवस्था यह स्थान एक मैदान जो घिरा भी हो सकता है फ़ूस-टटिया से कांटों से या चारदिवारी से मध्य में वृक्ष आदि और एक घारी(कच्ची निट्टी का बना घर ) और उसके आगे छप्पर, घारी में भूसा, चारा वगैरह और कृषि संबधी उपकरण रखे जाते है और उसके आगे के छप्परों में मवेशियों के रहने की व्यवस्था। और इस घारी और छप्पर वाले स्थान को वालदा या वाल्दा कहते है। अर्थात बग्गर में बना मवेशियों का घर वालदा कहलाता है।

छाऊछ में कुछ एतिहासिक प्रमाण_

मै उत्सुक रहता हूं ग्रामीण भाषा के शब्दों और उनके इतिहास को और यही उत्सुकता मुझे ले गयी छाऊछ के कुछ एतिहासिक स्थलों में मेरे यह पूछने पर कि चाचा गांवों में ककरहा नाम ताल क्यों होते है उनका भी जवाब मेरे अनुमान से मिलता जुलता है क्योंकि मैनहन, दुधवा और अन्य स्थानों पर तमाम तालों के नाम ककरहा या इससे मिलते जुलते है और इन सब जगहों से भी मैं परिचित हूं, तालाब की तलहटी में कंकड़ होना ही इस शब्द कि उत्पत्ति का कारक बना, किन्तु इन सभी ककरहा तालों में ये कंकड़ कहां से आये जबकि इनके बिल्कुल समीप के तालों की तलहटी में चिकनी मिट्टी मौजूद है?

मैनहन में ककरहा ताल से जुड़ा हुआ कुण्डा ताल जिसमें चिकनी मिट्टी है और वह ग्रामीणों द्वारा डेहरिया, कच्चे घरों की मरम्मत और मिट्टी के बर्तन बनाने में इस्तेमाल होती रही है।

मैं सोचता हूं कि कही ये तालाब निर्माण की कोई व्यवस्था तो नही थी जिसमें इसकी तलहटी में कंकड़ डाले जाते हों ताकि सोतों से स्वच्छ पानी छन कर आये और उसमे नहाने वाले लोगों के पैर मिट्टी में न धंसे और यदि कोई चीज़ तालाब में गिर जाये तो वह मिट्टी-कीचड़ में पैबस्त न होने पाये बल्कि तलहटी में कंकड़ों पर सुरक्षित रहे। यहां एक बात गौरतलब है कि ये  कंकड़ नुकीले न होकर गोल है ताकि मनुष्य और जानवर दोनों के पैर सुरक्षित रहे, छिद्रदार कंकड़। झाऊ पत्थर के………………।

तालाब निर्माण की तकनीक जो प्रचलित थी हमारी प्राचीन ग्रामीण सभ्यता में। कुछ आप भी सोचिये और बताइये।

और यह तकनीक जोड़ती है उन सब क्षेत्रों को जहां ककरहा ताल है और उन लोगो को भी .ये सभी एक ही परंपरा के लोग रहे होगे।

चाऊछ में भी मुझे पता चला ककरहा ताल के पास मठहा ताल है उसमें कंकड़ नही है और वहां पांच मठ बने हुए है इतिहास में इसके प्रमाण है कि विराटपुरी खीरी जनपद के बड़खर गांव में थी और यह सारे क्षेत्र उसी राज्य की सीमा में थे इस लिये अज्ञातवास के सम्य पाण्डवों के दुर्दिन भी इन तमाम जगहों पर बितीत हे जिनमें छाऊछ का जिक्र मैने पहली बार सुना जबकि आज के दुढवा टाइगर रिजर्व के जंगलों में कई स्थानों पर पाण्डवों के निवास करने की बाते कही जाती है।

इन मठॊ में चार मठ एक स्थान पर और एक थॊड़ा अलग और विशाल, कहते है पांचाली इसी मठ में रहती थी और इस मठ के द्वार पर जिसकी खड़ाऊ मौजूद होती थी तो यह अन्य भाईयों में मान लिया जाता था कि आज द्रौपदी के साथ रात्रि विश्राम कौन कर रहा है!