मैनहन

उत्तर भारत के एक गाँव की कहानी जो मैनहन विलेज ब्लाग के माध्यम से आप सभी के समक्ष रखने की कोशिश…परंपरा, इतिहास, धर्म, किबदन्तियां, ग्रामीण कहावते, कृषि, पारंपरिक ज्ञान, वनस्पतियां और जीव-जन्तु सभी का सिज़रा पेश करता है- मैनहन विलेज, जिसके बारे में हिन्दुस्तान दैनिक ने कुछ यूँ लिखा है ! 

कृष्ण कुमार मिश्र

क्या अवधी को हिन्दी खा गयी!

अफ़सोस इस बात का है कि हिन्दी उत्तर भारत की तमाम बोलियों को खा तो गयी किन्तु हिन्दी हिन्दवी नही बन पायी। यह वाक्य शायद तमाम लोगों को अजीब लगे, पर यह मसला बहस का है। एक समय था जब ब्रज काव्य की भाषा के तौर पर भारत की तमाम भाषाओं की सिरमौर थी और अवधी का दर्जा यकीनन ब्रज के बाद दूसरा था।  पूरी दुनिया में बेहतरीन महाकाव्यों की रचना इन्ही भाषाओं में हुई और धरती पर इन भाषाओं को एक अनोखा रुतवा हासिल है कि कही न कही तुलसी की रामचरित मानस और सूर व मीरा के पदों का गायन न हो रहा, बिना रुके लगातार….. ब्रज-अवधी-बुन्देली सूफ़ियों के गायन से लेकर दिल्ली दरबारों की शोभा बढ़ाती थी। कही ठुमरी तो कही ईश बन्दना को जबान इन्ही भाषाओं ने दी।  जैसे eयहां मैं निश्चित तौर पर अपनी इन्ही भाषाओं (बोलियों) में रचे गये महाकाव्यों की बिनाह पर  ये कह सकता हूं कि काव्य के मसले में हम पूरी दुनियां से अव्वल है। यहां मैं इन भाषाओं को बोलियां नही कह रहा हूं, जैसा की हिन्दी वाले कहते आये है! क्यों कि उन्होंने हिन्दी के उत्थान के लिए इन्ही भाषाओं के खण्डहरों पर हिन्दी की इमारत खड़ी  करने की कोशिश की।

सूफ़ी शिविरों से लेकर दरबारों तक ब्रज में आमिर खुसरो के छाप तिलक सब छीनी गूँज रही तो…. पं० बंशीधर शुक्ल का अवधी गीत  उठ जाग मुसाफ़िर रैन कहां जो सोवत है बापू के साबरमती का भोर का प्रार्थना गीत बना।

इन सब मसायल पर बात कर रहा हूँ क्योंकि आज मैं रूबरू हुआ हिन्दी-अवधी के तमाम पुरोधाओं से, अवधी सम्राट के गाँव मन्योरा में।

पं० बशीधर शुक्ल और अवधी के इस प्रसंगवश जो विचार आये उसका ये अभिप्राय कतई नही है कि मैं किसी विशेष भाषा के उत्थान या अवसान की तरफ़दारी कर रहा हूं। यहां एक ही मलाल और मकसद है कि जिसे हम अपनी राष्ट्र भाषा कहते है उसके प्रति ईमानदार हो न कि सिर्फ़ आयोजन या घोषणाओं से हिन्दी जनों को संतुष्ट करते रहे।

हम स्थापित करने के बजाय प्रयोगों में विश्वास अधिक रखते है और यही कारण है कि हिन्दुस्तानी को हमने हिन्दी बनाया फ़िर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी बनाने के लिए कमर तोड़ दी, लेकिन हिन्दी हिन्दुस्तानी की तरह प्रचलित होती गयी, आज कामिर्शिलाइज्ड हिन्दी यानी हिंग्लिश के स्वरूप और उसका बढ़ता चलन हमें लुभा रहा है। लेकिन अफ़सोस हम इसे स्वरूप नही दे पाये, ये काल और परिस्थित की गुलाम होकर डगमगाती हुई आगे बढ़ रही है…..इसकी वजह है इन्तजामियां का विमुख होना अपनी भाषा से, और कथित बुद्धिजीवीयों का दुख दर्द और दहाड़ पूर्ण कविता व कहानियों में माथा-पच्ची करते रहना, एक होड़ सी मची है कि कौन लेखक महाशय अपनी कविता की करुण? क्रन्दना से या कहानी से पाठक को इतना रुला दे कि उसकी छाती बैठ जाय और रचना बेस्ट-सेलर हो जाय…..हिन्दी में दर्द, कथित प्रेम और समाज़ कि कुरूपता बेचने की कवायद! यदि हम रामधारी सिंह दिनकर की संस्कृति के चार अध्याय, अमृत लाल नागर की गदर के फ़ूल, राहुल सांकृतायन की वोल्गा से गंगा………….आदि-आदि पुस्तको को छोड़ दे, तो इतिहास में जो भी हिन्दी भाषा के शोध है वे या तो नकल है अंग्रेजी पुस्तकों के या सिर्फ़ किस्सागोई। हम सिर्फ़ अपनी भाषा में सौन्दर्य ही लिखते रहे भूगोल, इतिहास, विज्ञान जैसे विषयों भूल ही गये जिसे पढ़ कर हमारी नई पीढ़ियां दुनिया को जान सके और देश व समाज़ के लिए कुछ करने लायक बन सके,……किन्तु कदाचित ऐसा नही है। इन्होने तो बिल्कुल ऐसा माहौल बना दिया है जिसे श्रीलाल शुक्ल ने कुछ यूं कहां, कि भागला नागर बाँध को देखकर अनायास ये लोग इसे ईश्वर की अदभुत रचना मान ले या स्ट्रेचर पर पड़ी बीमार युवती में भी इन्हे सौन्दर्य बोध हो और ये कवितायें करने लगे।

भाषा की समृद्धता इस बात पर निर्भर करती है कि उस भाषा में विश्व का कितना ज्ञान उपलब्ध है। और इस मामले में हम सबसे फ़िसड्डी है। सोवियत युनियन के दिनों में मास्को हिन्दी प्रकाशन ने रूस के बेहतरीन साहित्य का परिचय हमें कराया, उससे अब हमारी नयी हिन्दी भाषी पीढ़िया अनिभिज्ञ ही रहेगी, क्यों कि अब यह प्रकाशन बन्द हो चुका है।

जब सारी दुनियाबी बातें हमारी भाषा को अलंकृत करेगी तो हमारी भाषा से प्रत्येक जिज्ञासु अलंकृत होना चाहेगा बजाय इसके की वह उस इल्म को ढ़ूड़ने के लिए किसी और भाषा के दरवाजे पर दस्तक दे।

मध्य कालीन गुलामी ने प्राकृत के सभी प्रकारों को लगभग विलुप्त कर दिया, फ़ारसी ने राज-दरबारों की शोभा बढ़ाई और रियासतों के काम वहां की स्थानीय भाषा में शुरू हुए, जिसे हम हिन्दुस्तान कहते है उसमे उर्दू प्रमुख भाषा थी राज-काज की। इन्तजामियां बदली तो फ़ारसी की जगह अंग्रेजी ने ले ली और रियासती काम उर्दू में ही जारी रहे। भारत आजाद हुआ तो हिन्दी को राज भाषा तो बना दिया गया किन्तु भाषा के प्रति जिम्मेदारी से अलाहिदा ही रही सरकारें! बुजर्वा वर्ग अंग्रेजी को अपनी भाषा बना चुका था सो आज भी जारी है और वह अंग्रेजी भाषा के महा-भंडार से ज्ञान की चुस्कियां लेलेकर सर्वहारा पर अपनी लम्बरदारी जाहिर कर रहे है। और कविता कहानी पढ़ पढ़ कर हमारे लोगों का सौन्दर्य बोध, करुणा, उत्साह आदि तत्वों का मात्रात्मक स्वरूप तो बढ़ता गया किन्तु दुनियाबी मामलो से हम दूर होते गये और इसी के साथ साथ हिन्दी भाषी और हिन्दी लेखक हीन होता गया।

एक जिक्र जरूरी है,  शासन-सत्ता की जबानों ने हमेशा प्रगति की, फ़िर चाहे वह महाभारत काल हो, मोर्य काल हो या कनिष्क का शासन हो राजा के पश्रय में संस्कृत और पाली में आयुर्विज्ञान से लेकर खगोल शास्त्र तक लिखे गये, यदि इसी तरह अवधी और ब्रज आदि भाषाओं को भी राज प्रश्रय मिलता तो काव्य के अतिरिक्त भी तमाम इल्म का समावेश इनमें हो जाता है। क्योंकि इल्म पर परोक्ष अपरोक्ष नियन्त्रण सरकारों का ही रहता है, इनकी अनुमति के बिना कोई अप्लीकेशन संभव नही है। गुलामी के दिनों में यह द्वितीयक नागिरिको वाली बोलियों के तौर पर देखी जाती थी और आज आजादी के बाद भी वही व्यवहार जारी है। ब्रज़ की आवै-जावै, अवधी की आइब-जाइब को हिन्दी में आये-जाये बना देने से कुछ नही होता है।

भाषा विकास में अब अहम जरूरत है, कि हिन्दी में अनुवाद को प्राथमिकता दी जाय और हम अपनी भाषा में प्रत्येक उस विधा को शामिल कर ले, जो दुनिया की तमाम भाषाओं में है। सरकारों को बेहतर व सस्ते प्रकाशन मुहैया कराने चाहिए। और अच्छी पुस्तकों के प्रचार प्रसार की जिम्मेदारी भी, ताकि बड़े व्यापारिक घरानों द्वारा परोसी जा रही मनमानी चीज़ों के आगे हमारे बेहतर लेखन को भी जगह मिल सके। और जब ये ज्ञान हमारे अपने लोगों के बीच उन्ही की अपनी भाषा में पहुंचेगा तो यकीन मानियें ये लोग भांगला नागर बांध को देखकर ईश्वर की अदभुत रचना नही कहेगे बल्कि इसकी इन्जीनियरिंग की तारीफ़ करेगे और बीमार युवती को देखकर सौन्दर्य बोध के या करुणा( प्रेम की जड़) के बजाय उसकी बीमारी का कारण व इलाज़ बता देंगें।

आज भाषा, नदियां, तालाब, संस्कृतियां, और प्रजातियां सभी कुछ तो विलुप्त हो रहा है, इस हिन्दी को हम कब तक बचा पायेंगे, हिंग्लिश तो बना ही चुके है कल किसी नयी बयार में हिन्दी की जगह कुछ और बन जायेगा और हम नाव खेते रहेंगे बिना पतवार..बढ़ते रहेंगे..दिशाहीन और अनिश्चित मंजिल की ओर। क्या यही विकास है!

मेरा निशाना फ़िर वही लम्बरदार है जो बड़े औहदों पर बैठे मसलों को सिर्फ़ खाना-पूर्ति की नज़र से देखते है। और हम फ़िसड्डी होते जा रहे है अपने अतीत और अपनी चीज़ों के संरक्षण में, जो  वर्तमान और भविष्य में हमें मज़बूती दे सकती है।

(यह लेख २३ जनवरी सन २०१० को अमृत वर्षा के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हो चुका है)

कृष्ण कुमार मिश्र

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