एक तिनका
अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरिऔध”
उपाध्याय जी इस रचना से मैं परिचित हुआ जब मैं बहुत कम उम्र का था शायद पाठशाला जाने की शुरूवात भी नहीं हुई थी , किन्तु अपने पिता जी के मुख से ये गीत कई बार सुना था मायने पता नहीं थे पर बालक मन को इस कविता के अनजाने भावों ? ने प्रभावित जरूर किया था , प्रयोगवादी स्वभाव मुझमे हमेशा से रहा जो शायद मुझे विरासत में मिला है , यही वजह थी की इस कविता की पंक्तियाँ जो मुझे याद हो गयी थी उनका प्रयोग भी मैंने किया था , आप सभी हंस लोगें पर मैं बताऊंगा जरूर ….जो पंक्तिया रटी थी हमने …..
“मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।”
और मैंने निश्चय किया की इस बार जब आंधी आयेगी तो मैं अपने घर की मुड़ेर पर तन कर जरूर खडा होउंगा रोआब से! ऐसा हुआ भी की मैं इस कविता को गाते हुए उस धुल भरी आंधी में जीने की सीढिया लांघता हुआ दरवाजे के ऊपर अपनी छत पर खडा हुआ “मुझे वही मेरी मुड़ेर लगी थी ” और आँखों को पूरा खोलकर उस आंधी की दिशा की तरफ खडा हुआ की आखिर कभी न कभी तो कोइ तिनका आँख में गिरेगा …ऐसा हुआ भी आँख दर्द के मारे गुस्से!! में लाल हो गयी मेरी….पर मुझे कोइ तकलीफ नहीं हुई क्योंकि मैं ऐसा चाहता था
….आज सोचता हूँ काश पिता जी के मुख से निकली उस कविता को पूरा कंठस्थ किया होता अर्थ के साथ तो ऐसा बिलकुल नहीं करता और जिन्दगी का जो बेहतरीन अर्थ उस कविता में है उसे तब ही समझ गया होता बजाए एक उम्र गुजरने के बाद ! …अधूरे शब्दों की सार्थकता और उसका प्रयोग तो हासिल कर लिया था तब मैंने पर उसके भावों से अपरचित था ….आज लगा की ये कविता किसी के भी जीवन को सार्थकता दे सकती है .
…अयोध्या सिंह उपाध्याय का जिक्र करना भी जरूरी समझता हूँ ..गाजीपुर की जमीन की पैदाइश एक सनाढ्य ब्राह्मण कुल में , पिता ने पूर्व में ही सिख धर्म को अपनाया था सो अयोध्या उपाध्याय के मध्य सिंह शब्द ने अपनी जगह बना ली …आजादी के पांच महीने पूर्व ही इनका देहावसान हो गया …….
इस कविता ने जीवन के मूल्यों को जिस संजीदगी से परिभाषित किया है , उसे समझ लेना और आत्मसात कर लेना ही एक साधारण व्यक्ति को निर्वाण दे सकने में सक्षम है …..
इस कविता को मैनहन के इस पन्ने में अंकित कर रहा हूँ , अपने पिता की स्मृति में ..की जीवन के उस मूल्य को उन्होंने मुझे मेरे बचपन में ही बता देने की कोशिश की थी ..जिसे मैं बहुत बाद में शायद समझ पाया !..कृष्ण
चूंकि ये दो पंक्तियाँ बमुश्किल मेरी स्मृति में थी मैं पूंछता भी था कभी कभी अपने मित्रों से पर जवाब नहीं मिलते थे ..कभी बहुत कोशिश भी नहीं की ..अचानक एक दिन कई बार कुछ शब्दों के हेर फेर के साथ खोजने पर गूगल ने “एक तिनका” मुझे लौटा दिया जो बचपन में कही खो गया था …जी हाँ अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरिऔध” का वह एक तिनका …जाहिर हैं खुशी तो होगी और बहुत हुई …आप सभी से भी ये एक तिनका साझा कर रहा हूँ इस उम्मीद के साथ की इस तिनके की ताकत कभी न भूलिएगा …..
मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुँडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब ‘समझ’ ने यों मुझे ताने दिये।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
कृष्ण कुमार मिश्र ऑफ़ मैनहन (एक तिनका जो अभी भी है मेरी आँख में ! मैं चाहता भी नहीं की ये निकले, ताकि स्वयं का भान रहे सदैव ..भूलूं नहीं … )
अप्रैल 20, 2014
एक तिनका जो अभी भी है मेरी आँख में !
Posted by Krishna Kumar Mishra under History & Environment | टैग्स: ayodhya singh, अयोध्या सिंह उपाध्याय "हरिऔध", मैनहन, ek tinka, hindi, krishna kumar mishra, lakhimpur kheri, mitauli, poetry, raja lone singh |1 टिप्पणी