नैमिषारण्य, अट्ठासी हजार ऋषियों की पावन तपस्थली

नैमिषारण्य, नैमिष और नीमसार यह एक ही नाम है उस जगह के जहां कभी आर्यों की सबसे बड़ी मिशनरी रही, उत्तर भारत में ऋषियों यानी धर्म-प्ररचारकों का सबसे बड़ा गढ़। आप को बताऊं यह बिल्कुल वैसे ही जैसे अठारवीं सदी में योरोप और अमेरिका से आई ईसाई मिशनरियों ने भारत के जंगलों में रहने वाले लोगों के मध्य अपना धर्म-प्रचार किया और उन्हे ईसाई दीन की शिक्षा-दीक्षा दी, वैसे ही यह आर्य चार-पाँच हज़ार पूर्व आकर इन नदियों के किनारे वनों में अपने धर्म-स्थलों की स्थापना कर जन-मानस पर अपना प्रभाव छोड़ने लगे…धर्म एक व्यवस्था…एक कानून है और यह आसानी से जन-मानस को प्रभावित करता है और उनके मष्तिष्क पर काबू भी ! नतीजतन धर्म के सहारें फ़िर यह धर्माचार्य जनता पर अपना अप्रत्यक्ष शासन चलाना शुरू करते है…उदाहरण बहित है…रोम का पोप…भारत में बौद्ध मठ ….इत्यादि…!

दरअसल ये धर्माचार्य आम मनुष्य के अतिरिक्त सर्वप्रथम राजा पर अपना प्रभाव छोड़ते है, राजा उनका अनुयायी हुआ नही कि जनता अपने आप उनसे अभिशक्त हो जाती है, यदि हम इतिहास में झांके को देखेगे..चन्द्रगुप्त मौर्य पर बौद्ध धर्माचार्यों ने अपना प्रभाव छोड़ना शुरू किया वह आशक्त भी हुआ बौद्ध धर्म से किन्तु चाणक्य के डर से वह बौद्ध नही बन पाया, कनिष्क कुषाण था किन्तु आर्यावर्त के स्नातन धर्माचार्यों के प्रभाव से वह शिव यानी महादेव का उपासक हो गया औय ही हाल तुर्किस्तान से आये शकों का था जो महादेव के अनुवायी बन छोटे छोटे छत्रपों के रूप में उत्तर भारत पर राज्य करते रहे । धर्म का वाहक ऋषि जो गुरू होता था राजा और प्रजा का, राम को ही ले तो दशरथ से ज्यादा हक़ वशिष्ठ और विश्वामित्र का था राम पर….जैसा गुरू कहे राजा वही करता था यानी अप्रत्यक्ष रूप से धर्म का ही शासन…चलो ये भी ठीक धर्म कोई भी हो सही राह दिखाता है….लेकिन यदि धर्म के वाहक ही अधर्म के कैंन्सर से ग्रस्त हो जायें तो उस राज्य और वहां के रहने वालों का ईश्वर मालिक…..।

आप सब को इतिहास की इन खिड़कियों में झाकने के लिए विवश करने की वजह थी, मेरा  आर्यावर्त में नैमिष के उस महान स्थल का अवलोकन व विश्लेषण जिसने मुझे स्तब्ध कर दिया ! धर्म के विद्रूप दृष्यों और क्रियाकलापों को देखकर..अब न तो वहां कॊई धर्म का सदगुणी वाहक है और न ही जन-कल्याण की भावना, और न ही कोई ऐसा धर्माचार्य जो मौजूदा लोकतान्त्रिक इन्द्र को यानी लाल-बत्ती वालों को प्रभावित कर अच्छे या बुरे (अपने विचारों के अनुरूप) कार्य करवा सकें…यदि कुछ बचा है तो अतीत का वह रमणीक स्थल जहां कभी कल-कल बहती आदिगंगा गोमती का वह सिकुड़ा हुआ रूप जो एक सूखे नाले में परिवर्तित हो चुका है, घने वनों की जगह मात्र छोटे छोटे स्थल बचे हुए है जहां कुछ वन जैसा प्रतीत हो सकता है ! और ऋषि आश्रमों में जहां हज़ारों गायें विचरण करती थी, हज़ारों बच्चे संस्कृत में वेदों की ऋचाओं का उदघोष करते थे और आचार्य धर्म पर व्याख्यान देते थे…इन सबकी जगह अब वह हमारी निश्छल और गरीब जनता को ठगने और उनका आर्थिक व शारीरिक शोषण करने वाले मनुष्य बचे हुए…गन्दे, भद्दे, मूर्ख, चतुर, कपटी, लोभी, लालची, मनुष्य जो सन्त के चोले में हमारे निश्छल, भोले, सादे, व धर्म भक्ति में डूबे लोगों को वह कपटी, साधनहीन सन्त अपनी जीविका और अय्याशी का साधन बनाने की फ़िराक में तत्पर दिखती है, उनकी आंखों में लोभ की चमक साफ़ दिखती है..! बस वे इसी फ़िराक में रहते है कि कब हमारे गांवों से आये हुए तीर्थ-यात्रियों में से कोई व्यक्ति उनके चंगुल में फ़ंसे…!

यहां एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि अतीत में धर्म के सहारे सीधे या अप्रत्यक्ष रूप पर जनता पर आधिपत्य करने की कोशिश में धर्म कानून की किताब की तरह कार्य करता था, जिसका पालन शासक और शासित दोनो किया करते थे…लोकतन्त्र और शिक्षा के प्रसार ने अब उस धार्मिक शासन ्यव्स्था को ध्वस्त तो कर दिया किन्तु जन-मानस के मस्तिष्क में वह धर्म और उसका डर अभी भी परंपरा के रूप में पीढी दर पीढी चला आ रहा है, हां अब न तो योग्य ऋषि है और न ही अन्वेषणकर्ता मुनि, सन्त इत्यादि बचे है वो लकीर के फ़कीर भी नही है, बस आडम्बर से लबा-लब भरे विषयुक्त ह्रदय वाले मनुष्य धर्म के भेष में शैतान है जिनकी उपमा किसी जानवर से भी नही दी जा सकती..क्योंकि वह जानवर क्रूरता और दुर्दान्तता के शब्दों सेब मानव द्वारा परिभाषित किया जाता है उसके पीछे उसके जीवित रहने की विभीषिका होती है न कि इन कथित सन्तों की तरह कुटिल कूतिनीति, लालच …..

धर्म के नाम पर बड़े बड़े गढ़, आश्रम और तीर्थ, मन्दिर इत्यादि का निर्माण सिर्फ़ व्यक्तिगत महत्वांकाक्षाओं का नतीजा होते है, जन-कल्याण और शिक्षा की भावना गौढ होती है…नतीजतन ये धर्म स्थल व्यक्ति के अंह और उसके द्वारा बनाये गये नियमों को जनता पर थोपने का अड्डा बनते है..तकि धन, एश्वर्य और वासना की पूर्ति कर सके ये कुंठित धर्माधिकारी।

मैने अपनी इस यात्रा में एक हजारों हेक्टेयर में फ़ैले आश्रम को देखा जहां सैकड़ो ऋषि कुटिया बीरान पड़ी, गौशालायें सूनी है, और संस्कृत शिक्षा देने वाले विद्यालयों में ६०-७० बच्चे, जिन्हे ठीक से इस कठित देव-भाषा का भी ज्ञान नही दिया जा सका, उनसे पूछने पर की आगे चलकर क्या बनना चाहोगे तो उन्हे पता नही…हां एक बच्चे ने बड़े गर्व से कहां हम यहां से पढ़ाई करके यज्ञाचार्य, वेदाचार्य और न जाने कौन कौन से चार्य बनने की बात कही..कुल मिलाकर उन्हे भिखारी बनाने की जुगत और बड़े होकर मां बाप को पानी न दे सके इसकी योजना बस यों ही भटकते रहे कि कब कोई धर्म भीर मिले और वे उसे लूट सके…!

जब मैं इस विद्यालय के भीतर घुसा तो बच्चे अपने सिखाये गये तरीको का इस्तेमाल करने लगे…जैसा कि उनके गुरूवों ने बताया होगा कि किसी आगन्तुक की घुसपैठ पर तुम सभी को कैसा व्यवहार करना है..ताकि यह विद्यालय और बालक ऐसे प्रतीत हो सके जैसे की  चौथी- पाचवींं सदी के गुरूकुल या राम की उस कथा के गुरूकुलों की तरह….बच्चे पेड़ो के चारो तरफ़ बने चबूतरे के आस-पास इकट्ठा होने लगे अपने वस्त्र संभालते हुए…एक-दो कमजोर टाइप के बालक (शायद गुरू के आदेश पर जबरू टाइप के बच्चो ने यह मेहनत वाला नाटक करने के लिए कमजोर टाइप के बालकों को चुना होगा)रेत में झाड़ू लगाने लगे..जबकि बुहारने जैसा वहां कुछ नही था…

मैनें उन बच्चों से पूछा की भाई कोई फ़ीस भी पड़ती है..बोले हां ३० रूपये महीना मैने कहां ये तो सरकारी स्कूलों से भी ज्यादा है…तो एक सुधी बालक बड़े संतुष्ट भाव से बोला तीन सौ रूपये में खाना पीना और रहना सब कुछ तो है………

मजे के बात गुरूवों अता पता नही शायद वो सब कही शादी-ब्याह या हवन कराकर अपनी जीविकापार्जन में लगे थे, मैने पूंछा प्रिंसिपल…तो बोले समाधि में है….समाधि में है तो यह सुनकर दो विचार है, कि समाधि दो तरह की होती है..एक मरने के बाद दफ़ना दिए जाने पर और दूसरे जीवित रहकर ध्यान की अवस्था में शिव की तरह…अब मरा हुआ व्यक्ति प्रोसिंपलगिरी तो नही कर सकता सो मैने सोचा आह..क्या बात है अभी भी समाधि लेते है ये महापुरूष..किन्तु..बड़ी देर में पता चला किसी सन्त की समाधि बनी होगी वहा अब बड़ा भवन है पंखा-कूलर इत्यादि से सुसज्जित वही आराम फ़रमा रहे है।

एक बड़े भवन में माइक पर भाषण देता सन्त रूपी मूर्ख चाण्डाल और उसके बीच बैठे कुछ गांव के सीधे-साधे धर्म की पट्टी बाधें गवांर…मुझे उन सब पर बड़ा तरस आया…वह चाण्डाल बार बार माइक पर रटे जा रहा था धर्म पुस्तकों का अध्ययन करो…करो….उन अनपढ़े लोगो से…!

कहते है भगवान विष्णु का चक्र गिरा था तो पाताल तक चला गया और वही पानी निकलता रहता है….!! इस गोलाकार कुऎं रूपी रचना के चारो तरफ़ भी बाउन्ड्री बाल बनाकर चक्र तीर्थ का निर्माण हुआ, यहां प्लास्टिक की थलियाम कड़े और पूजा सामग्री से लबलब भरा यह जल जिसमें श्रद्धालु स्नान कर रहे थे…और उन श्रद्धालुओं से अधिक गोते लगा रहे थे पण्डे (पूजा इत्यादि कराने वाले) क्यों कि जनमानस द्वारा पैसा आदि या चांदी स्वर्ण इत्यादि को चक्र में प्रवाह किया जाता है..जिसे ये लालची पण्डे दिन भर पाने में तैर तैर कर खोजते रहते है……

कुल मिलाकर कभी यह निर्जन स्थान आर्यों के छिपने और बसने की जगह बनी,  पहले से रह रही जातियों और मूल भारतीयों से जिनको इन्होंने राक्षस कह कर पुकारा ! और यही दधीच ऋषि ने इन्ही भारतीयों से लड़ने के लिए गायों से अपने शरीर पर नमक डालकर चटवाकर अपनी हड्डियों से धनुष बनवाने के लिए प्राण त्यागे…यह किवदन्ती है जो भी हो ये ऋषि आर्य राजओं के पक्षधर बन जनता में उनके विश्वास को कायम करने में तल्लीन रहते थे और राजनीति यही संचालित होती थी जैसा कि बाद में बौद्ध मठों में हुआ और कुछ सूफ़ियों ने किया….। सत्ता को हासिल करने में धर्म की तलवार का इस्तेमाल नया नही बहुत पुराना है…ईसाई और मुसलमानों से पहले …बहुत पहले से…!

एक बात और पुराणों के नाम पर बहुत से कलुषित विचारों वाले मूर्ख ऋषियों ने दर्जनों पुस्तकों को बूक डाला और हमारी जनता अन्ध-भक्त बन  देवताओं और महा-मानवो की वासनाओं की कथाये बड़ी भक्ति भाव से आज भी बाच रहा है टीका चन्दन और धूपबत्ती के साथ। यही वह स्थल है जहां मूर्खों ने तमाम मन-गढन्त देवी देवताओं की वासनाओं का लेखन किया जो दरसल लिखने वाले के दिमाग की उपज थी।

उत्तर भारत को इन आर्य आक्रान्ताओं ने इन्ही धर्माचार्यों की मदद से अपने अधिकार में कर लिया और यही कारण था कि भारत में पहले से रह रही जातियां इन आर्यों से अपने छीने हुए अधिकारों और संपदा को वापस लेने के लिए कुटिल ऋषियों को अपना निशाना बनाते थे…ये आर्यों के एजेन्ट ऋषि हवन यग्य आदि के नाम पर अन्न धन बटोरने में जुटे रहते थे भारतवासियों से और आर्य राजाओं की नीतियों को धर्म का जामा पहनाकर जनमानस को मूढ़ बनाते रहते है….

सिन्धुघाटी को नष्ट करते हुए ये आताताई पूरे उत्तर भारत में फ़ैल गये, धर्म के प्रचार-प्रसार की व्यवस्था आज की ईसाई मिशन्रियों से भी अधिक पुख्ता थी, धर्म को कानून बनाकर जनता पर अत्याचार करते हुए इन आर्यों ने हिन्दुस्तान की धरती को पर वर्न्शंकरों की फ़ौज तैयार कर दी, साथ ही पहले से रह रही मूल? जातियों को दक्षिण में खदेड़ दिया, इनकी सत्ता भी ब्रिटिश साम्राज्य की तरह या अरब के खलीफ़ा की तरह थी..वे गुलामों की फ़ौज भेजते और भारत की धरती पर गुलामों की फ़ौज जनता को अपना गुलाम बनाती…यानी पहले दर्जे का गुलाम दोयम दर्जे के गुलाम पर शासन करता है और लूट-मार का सामान लन्दन या बल्क-बुखारा भेजता…यही हाल था इन आर्यों का जो इन्द्र और उनसे भी बड़े किन्तु अघोषित देवताओं की गुलामी करते ये गुलाम भारत भूमि पर आये और यज्ञ्य के नाम पर यानी टेक्स वसूलते और इन्द्र को भेजते …यहां तक कि जबरियन इन्द्र की पूजा कराई जाती … इतना ही नही इन्द्र जैसे शासक अपने ही भेजे गये एजेन्टो यानी ऋषि पत्नियों के साथ बलात्कार भी करते और उस महिला पर चरित्रहीन होने का झूठा आरोप भी लगाते जिसे न चाहते हुए उस महिला के पति और जनता दोनों को मानन पड़ता। अजीब हालात थे..इन हरामखोर देवताओ और इनके गुलामों के…..आप को याद होगा भारत में आर्यों की वर्णशंकर संतानों ने उन्हे चुनौती दी..जैसा कि अमेरिकन ने कभी जंगे आजादी की लड़ाई अपनी ही कौम से लड़ी थी… हां मै बात कर रहा हूं कृष्ण की जिन्होंने इन्द्र पूजा को समाप्त कर गोवर्धन की पोजा करवाई यह इतिहासी शायद पहली लिखित घटना हो आत्म-स्वालम्बन की, स्वन्त्रता की…पराधीनता के खिलाफ़ कृष्ण का यह विद्रोह मन में स्वाधीनता व आत्मनिर्भरता का सुन्दर भान कराता है…एक वाकया और उस राम का जिसे हम आदर्श मानते है, यकीनन वह गर्व करने वाले व्यक्तित्व थे जो अपने पिता के आकाओं के विरूद्ध जाकर एक नारी के चरित्र पर लगे उस झूठे आरोप को मिटा डाला…हालांकि सत्ता के शीर्ष पर बैठे इन्द्र को दण्डित करने का साहस नही दिखा सके किन्तु उस ऋषि पत्नी पर लगे आरोप समाज से बहिष्ख्रुत महिला की दोबारा वापसी का श्रेष्ठ कार्य दशरथ पुत्र राम ने अवश्य किया…..इतिहास की ये घटनायें हमें यह बताती है कि कैसे धर्म कानून बन अत्याचार और शोषण का माध्यम बना…जो आज भी जारी है….

धर्म स्वयं की अभिव्यक्ति है और साधना भी स्वयं की अभिव्यक्ति है और ईश्वर भी ! फ़िर क्यूं अन्यन्त्र खोजते है हम इसे….सद-शिक्षा, सेवा, जन-कल्याण की भावना से किए गये धार्मिक अनुष्ठान तो समझ आते है पर कपटी लम्पट और अति महात्वाकाक्षीं कथित सन्तों के पीछे पीछे झण्डाबरदारी करते हमारे साधारण व आस्थावान लोग जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष इन महानुभावों की कीर्ति की बढोत्तरी का साधन मात्र बन कर रह जाते है यह बात मेरी समझ नही आती !

 किसी जाति को गुलाम बनाना हो तो उसकी भाषा, उसका इतिहास और उसका धर्म बदल दो वह जाति आप की अनुयायी हो जायेगी…और आर्यों ने, मुसलमानों ने और  ईसाईयों ने यही किया…और बदल डाला पूरा समाज जो परंपरा के रूप में बचा वह आज भी विद्यमान है कही कही…!

अपनी यात्रा के अन्तिम चरण में आदि देव विशुद्ध भारतीय महादेव देव-देवेश्वर के दर्शन के किए जो नैमिष से कुछ ही किलोमीटर दूर दक्षिण दिशा में गोमती के तट पर एक वन में स्थापित है…प्राचीन शिला का यह शिवलिंग अदभुत है।

इस पूरे तीर्थ स्थल पर मुझे कुछ अच्छा लगा तो वे नि्ष्कपट, आस्थावान, लोगो के  चेहरे जिनमें निश्छलता और धर्म के प्रति अगाध प्रेम साफ़ दिखाई दे रहा था..किसी कपटी सन्त के बजाए मुझे इन चेहरों के दर्शन मेरी इस यात्रा की सफ़लता थे।

कृष्ण कुमार मिश्र

© Krishna Kumar Mishraएक हमारे इलाके की बात याद आ गयी

जब बात चली एक हमारे नजदीकी शख्शियत की जिनका अचानक देहावसान हो गया है, और उनके खानदान के चील-बिल्लौआ टाइप के लोग उनकी अकूत संपत्ति का कैसे उपभोग करेंगे…इस सवाल ने मेरे शातिर दिमाग में एक किस्सा घुमड़ गया…आप सभी सुने…वैसे तो ये किस्सा मैने अपने अनुज समान मित्र को सुनाया था पर जरूरी समझा की आप से भी साझा करू !

सुने….

ध्यान से

कि एक बार मितौली के समीप एक गांव में ठाकुर साहब रहते थे

उनका बकरा कोई उठा ले गया…

ठाकुर साहब का दबदबा था सो

जल्द ही उन्हे पता चल गया

कि बुधुवा पासी ले गया है…..

साला बड़ा खुरापाती था

सामने तो ठाकुर साहब की जी हजूरी करता था

पर मौका लगते हाथ साफ़ कर गया

ठाकुर साहब ने बहुत खोजा न तो साला बुधुवा मिला और

न ही बकरा

अब ठाकुर साहब बहुत परेशान

शाम को खाना न खाये

ठकुराइन थाली लिए- लिए घूमे

जिसमें गोस्त इत्यादि सब था

पर ठाकुर को एक ही बात खाये जा रही थी

जो उन्हे खाने नही दे रही थी

पूछो कौन सी बात ?

वो बोले ठकुराईन

मुझे इस बात का दुख नही कि साला बुधुवा खसी बकरा  चुरा ले गया है…..

मलाल इस बात का है..कि वहु सार बेझरी (चने, बाजरा, मक्का इत्यादि  का आटा)  की रोटी कि साथ मस्त बकरे का गोस्त खाई……

!!!!!!!!!!!!!!!

इति

आप को पता होगा उस दौर में सम्पन्न लोग ही गेहूं की रोटिया खाते थे..गरीबो को बाजरा, जौ, मक्का और चना नसीब होता था

……

कृष्ण कुमार मिश्र

© Krishna Kumar Mishra

© Krishna Kumar Mishra

एक बात जो ठीक से नही कह पा रहा…..

आज गुजरा शहर के कोर एरिया से..तो कुछ अध्यापक बन्धु मिले तो ठहर लिया सड़क के किनारे, तभी एक फ़ल वाला अपनी चलती फ़िरती दुकान को घर ले जाने की तैयारी में था, और उसने कुछ खराब हो चुके अंगूर सड़क के किनारे लगा दिए…मैने सारे मामले को अपने हिसाब से गढ़ लिया ..कि कोई गाय आयेगी और उसे ये अंगूर खाने को मिल जायेगें…तभी एक अधेड़ आदमी उन्हें बटोरने लगा बड़े इत्मिनान से और जब सारे सड़े-गले अंगूर उसकी थैली में समा गये तो वह बड़े इत्मिनान से साईकिल में थैली को टांगकर चल पड़ा…देखिए यह है आवश्यकता का एक रूप जो व्यक्ति और हालात के हिसाब से बदलता रहता है..एक के लिए जो अंगूर खराब हो चुके थे..दूसरे के लिए बेशकीमती थे….इसलिए मित्र संसार में हर वस्तु कीमती है..मोल आप को लगाना है अपनी जरूरत के हिसाब से….आइन्दा से किसी भी चीज को हिकारत से मत देखिएगा…पता नही वह किसी के लिए कितनी कीमती हो..

कृष्ण कुमार मिश्र

13 अप्रैल 2011

प्रेम (मन) की कैसी यह विडम्बना….
खीरी जनपद की निघासन तहसील के शंकरपुर गाँव का एक दीवाना जिसने बेसिक शिक्षा स्कूल में तैनात नवीन शहरी शिक्षिका के प्यार में अपने सीने पर बाँके से आठ वार किए, और बोला अगर आप ने मेरे प्रेम को स्वीकार नही किया तो अगली बार अपना सिर काट कर आप के चरणों में रख दूंगा..वाह री दीवानगी..एकतरफ़ा प्रेम का यह वीभत्स रूप..इसका कारण क्या शहरों से आई वे फ़ैशन परस्त युवतियां है,  जिनके अक्स में ये गांव के युवक करीना कपूर या बिपासा कों झांकने की कोशिश करते है।

फ़िलहाल युवक अस्पताल में है, और डी०एम०, एस०पी० को खत लिख चुका है कि यदि उन्होंने उसका प्यार उसे नही दिलाया तो वह अपना सिर काट लेगा…अफ़सरान परेशान है, फ़िलहाल शिक्षिका का अन्यन्त्र तबादला कर दिया गया है…

सुना है कि वह मुस्काराती है और अपने हुस्न के गरूर में गाफ़िल है..बेचारा वह युवक…अभी आला अफ़सरान उस युवक के पत्रों को मार्क कर छोटे अधिकारियों को भेज रहे है, अब वे क्या करें इस भयानक प्रेम की त्रासदी से कैसे निपटे..क्या अफ़सरों का दिलों पर अख्तियार है ?

….खैर एक शिक्षिका शिक्षिका के लिबास में दिखे और आचरण में भी बजाए इसके कि वह किसी फ़िल्मी नायिका का अक्स लिए इन बंजर जमीनों में खेत-खलिहानों में घूमें स्कूटी पर मुंह में दुपट्टा लपेटे किसी डाकू-हसीना की तरह..ऐसे में यदि हमारे गांव का कोई गबरू जवान इस कदर दीवाना बन बैठे तो उसमें उसकी क्या खता…!!.

..सुन्दर महिलाओं से क्षमा प्रार्थना के साथ आपका कृष्ण

कृष्ण कुमार मिश्र

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….ताजमहल जिसका नामो-निशान मिट जाता !

नष्ट हो जाता मध्य-कालीन भारत का यह अदभुत व सुन्दर अतीत

भारत के इतिहास की एक झांकी ताज के बहाने…

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक

मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझ से..!

साहिर लुधियानवी (१९२१ – २५ अक्टूबर १९८०) की गज़ल की कुछ लाइनें पेश है, जिन्हे मेरे अजीज नें मुझे भेजी, और मैं बावस्ता हुआ इस एहसास से, उनके शब्दों में मुफ़लिसी की पीड़ा, मायूसियत के भाव, हीनता की विडंबना को बड़ी खूबशूरती से पिरोया है, उनकी इन पंक्तियों के सहारे मुझे खयाल आया कुछ किस्सों का जो जुड़े है इस बेहतरीन इमारत से, और भारतीय पुरातात्विक मसलों सें ।

कौन नही जानता इस कब्र को जिसमें मोहब्बत के एहसासात सफ़ेद मार्बल के तौर पर गुथे हुए हैं इस आलीशान इमारत में, जो आज एक मशहूर पर्यटन स्थल, जिससे जुड़ी है तमाम कहानी किस्से कुछ झूठे कुछ सच्चे ! पर मैं बात करूंगा कुछ चुनिंदा वाकयात की जो अहम हैं।

लार्ड विलियम हेनरी कैन्डेविश बेन्टिक, सती प्रथा, और ताजमहल

ईस्ट इंडिया कंपनी सरकार के गवर्नर जनरल (1828-1835) लार्ड विलियम हेनरी कैन्डेविश बेन्टिक (1774-1839) ने ताजमहल को ढहाने के आदेश जारी कर दिए थे, और उसके निर्माण में लगी तमाम बेशकीमती चीजों को बेच देने की मंशा जाहिर की थी। खासतौर से इमारत में इस्तेमाल हुए संगमरमर को। यह वही शख्स है जिसने भारत में सती प्रथा पर पूर्ण प्रतिबन्ध (बंगाल प्रेसीडेंसी में) का फ़रमान जारी कर दिया था, वह दिन चार दिसम्बर 1929 ई० था। ताजमहल हो नष्ट कर देने की चर्चा उस वक्त इंग्लैंड से लेकर पूरे हिन्दुस्तान में थी, बेन्टिंक ने आगरा फ़ोर्ट में अलग हुए संगमरमर की विक्री कर दी थी, और ताजमहल को एक फ़ालतू इमारत मानते हुए उसे भी ढहा कर संगमरमर की नीलामी का आदेश पारित कर दिया था, बताते है, आगरा में नीलामी को लेकर कुच दिक्कते आई जिसके चलते गवरनर जनरल ले अपना इरादा बदल दिया। इस वाकये का पुख्ता जिक्र ई० वी० हैवल की पुस्तक  “इंण्डियन स्क्लप्चर एंड पेंटिंग” में मिलता है उन्होंने लिखा कि गवर्नर जनरल बेन्टिक पूरी तरह से ताजमहल को तबाह कर उसके संगमरमर को नीलाम कर देना चाहते थे, किन्तु आगरा फ़ोर्ट के संगमरमर की नीलामी से असंतुष्ट होने के कारण उन्होंने अपना इरादा बदला था। जी०टी० गैरट ने हैवल के शब्दों से अधिक तीक्ष्णता से इस बात को कहा। काफ़ी बाद में सन 1948 ई० में एच०जी रालिन्सन ने तो कमाल ही कर दिया, उन्होंने कहा कि कम्पनी सरकार के समय के लोग बिल्कुल असभ्य व मूर्ख थे, नतीजतन उनसे ऐसे ही फ़ैसलों की उम्मीद की जा सकती थी, जो सिर्फ़ सत्ता को स्थापित करने के लिए थी।

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भारतीय पुरातत्व सरंक्षण (ASI)

सन 1904 में लार्ड कर्जन के भारत आगमन पर पुरातात्विक महत्व की चीजों को पुख्ता सरंक्षण प्राप्त हुआ।, कर्जन स्वयं एक विरासत प्रेमी थे, और उन्होंने स्मारकों (निशानियों, यादगार) के सरंक्षण का कानून पारित किया। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अन्तर्गत कार्य करने वाला संगठन है, जो पुराने स्मारकों के सरंक्षण व संवर्धन में पिछले 100 वर्षों से अधिक समय से कार्य कर रहा है। माना जाता है, ए०एस०आई० की नींव सन 1764 में पुरातत्ववेत्ता विलियम जान के प्रयासों से हुई, जब इन्होंने  एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना की थी। आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया की औपचारिक स्थापना सन 1871 में की गयी। इसकी स्थापना का श्रेय अलेक्जेंडर कनिंघम को जाता है, जो उस वक्त ब्रिटिश इण्डिया के बंगाल में इंजीनियर के पद पर कार्यरत थे। और अलेक्जेंडर कनिंघम को ही ए०एस०आई० का प्रथम डाइरेक्टर जनरल बनने का गौरव प्राप्त हुआ, आज से ठीक 140 वर्ष पूर्व। पुराने स्मारकों, नवीन खुदाई स्थलों से प्राप्त जानकारियों के विषय में संकलन व प्रकाशन ए०एस०आई० द्वारा समय समय किया जाता है, इसी संस्था के सन 1924 में डाइरेक्टर जनरल जॉन मार्शल द्वारा सिन्धु घाटी सभ्यता की खोज की औपचारिक घोषणा सन 1924 में की। यह खोज भारतीय इतिहास की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों में से एक थी, इसी खोज ने मार्शल को रातो रात ब्रिटेन और भारत के अतिरिक्त सारी दुनिया में हीरो बना दिया। प्रत्येक राज्य में ए०एस०आई के कार्यालय मौजूद हैं, जहां से सरंक्षण की गतिविधियों को अंजाम दिया जाता है। सन 1902 में जॉन मार्शल द्वारा पुरातात्विक वस्तुओं के सरंक्षण व संवर्धन में बनाई गयी नीति इतनी बेहतर व दूरगामी सोच का परिणाम थी कि हम सब आज भी उसी निति के कायल है, “किसी भी ध्वंश पुरातात्विक वस्तु का पुनर्निर्माण तब तक वर्जित है, जब तक कुशल कारीगर व तकनीक और उचित निर्माण सामग्री प्राप्त न हो, जो उस ध्वंश प्राचीन वस्तु को हुबहू निर्मित कर दे , अन्यथा उस प्राचीन स्मारक आदि को यथा स्थिति में ही सरंक्षित रखा जाए”।

किन्तु ASI के तमाम नियम कानूनों के बाद ASI द्वारा सरंक्षित स्थलों पर बेन्टिक के उस नीति का खुला उल्लंघन हो रहा है, जो पुरातात्विक महत्व की चीजों के लिए मुफ़ीद है, लखीमपुर खीरी के ओयल (ब्रिटिश-भारत की एक रियासत) द्वारा बनवाये गये विश्व प्रसिद्ध मेढक मन्दिर व अन्य प्राचीन इमारतों के जीर्णोंद्धार के नाम पर सीमेन्ट बालू व मौरंग का प्रयोग कर दिया गया, जो कि उन पदार्थों से बिल्कुल भिन्न है, जिनसे ये दीवारे, कलाकृतियां निर्मित हुई थी, यह मेढ़क मन्दिर उत्तर प्रदेश में पुरातत्व विभाग द्वारा आर्कियोलाजिकल साइट के रूप में दर्ज है। यानि हम सही बात को भी स्वीकार करना नही जानते जो हमारे लिए और हमारे एतिहासिक गौरव के लिए लाभप्रद है।

ऐसे हुआ ब्राह्मी लिपि व सम्राट अशोक के फ़रमानों का पर्दाफ़ास

ब्राह्मी लिपि को पहली बार 1830 में समझा गया,  ए०एस०आई० संस्था के सचिव जेम्स प्रिंसेप द्वारा। इस लिपि को पढ़ लेने व समझनें की खोज से भारतीय अतीत के तमाम रहस्य प्रकाश में आये। सम्राट अशोक के राजाज्ञा को जाना गया इस लिपि को समझने के पश्चात, यह एक अदभुत खोज थी।

मौजूदा समय में एक आकलन के मुताबिक भारत में 50,000 स्मारक है, जबकि  ए०एस०आई० द्वारा चिन्हित व सरंक्षित स्मारकों की संख्या मात्र 7000 (राज्य व केन्द्र द्वारा संयुक्त प्रयास)  हैं। ये दुर्भाग्य ही है कि स्वंत्रता प्राप्ति के 62 वर्षों के उपरान्त भी हम विरासत के सरंक्षण में हम अंग्रेजों से बहुत पीछे हैं। और उन्ही के अध्ययन की बार-बार नकल कर अपने आप को ज्ञानी व इतिहासकार साबित करने की नाकाम कोशिशे करते रहते है !

विरासत के प्रति हमारा यह कैसा मोह है, कि अपने अतीत को महिमा मंडित करने से कही नही चूकते, झूठ पर झूठ बोल कर स्वयं और अपने गरीब व अनपढ़ पूर्वजों को महान बनाने की चेष्टा करते है, बल्कि तमाम खण्ड काव्यों की रचनायेंभी, जिनमे अतिशयोक्ति के अतिरिक्त कुछ नही ! अफ़सोस कि हम ईमानदारी से अतीत को दर्ज करना और उसका सरंक्षण करना आज भी नही सीख पायें, उन मास्टर्स से भी नही जिन्होंने हमारे मुल्क पर सदियों राज किया ।

क्या हम इतिहास की महत्ता को स्वीकार कर कुछ करते है, अपने आस-पास के उस वर्तमान का संकलन, जो कल को इतिहास बनने वाला है ?

जिसका अतीत ही अनिश्चित, अनिर्णित, अस्पष्ट व अज्ञात हो,  उसके वर्तमान व भविष्य का ईश्वर मालिक !

कृष्ण कुमार मिश्र

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन हाउस

77, कैनाल रोड, शिव कालोनी

लखीमपुर खीरी-262701

भारतवर्ष

email- krishna.manhan@gmail.com

प्रकाश स्तंभों की कहानी

हमारी राहों को रोशन करने वाले इन प्रकाश स्तंभों की एक लघु-कथा

Image source: Wikipedia
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उस रोज एक अंग्रेजी अखबार में मीनार नुमा आकृति देखी जिसे लाइट हाउस यानि प्रकाश स्तंभ कहते हैं, तो मन किया चलों कुछ पढ़ा-लिखा जाए इन आकृतियों पर जो हमारें लोगों को शताब्दियों से राह दिखाने का काम करते आए हैं। चूंकि हम नदियों के प्रदेश में रहने वाले लोग समन्दर की हलचलों से नावाकिफ़ ही रहे, बस पत्र-पत्रिकाओं और टी०वी० आदि में उन विशाल लहरों, जंजीरों, जहाजों और प्राचीन प्रकाश स्तंभों के किस्से कहानी सुनते आयें थे।

फ़िर भी चलिए हम बात कर लेते है उन गाइड की जो हमारें लोगों को समन्दर में राह दिखाते रहे हैं….वैसे भारतीय उप-महाद्वीप में मौर्य काल  बौद्ध कालीन शासन व्यवस्था में प्रकाश स्तंभों के निर्माण का जिक्र है, किन्तु योरोपीय व्यापारियों, के भारत आने पर जिन लाइट हाउस का निर्माण हुआ उनका विस्तृत प्रामाणिक इतिहास मौजूद है।  हमारी राहों को रोशन करने वाले इन प्रकाश स्तंभों की एक कथा…..

हमारे धरती पर प्रादुर्भाव होने से और खात्में तक तमाम लाइट हाउस हमारा मार्गदर्शन करते हैं, वह फ़िर चाहें समन्दर के किनारे खड़े ईंट-गारे से बनी ऊंची मीनारें हो जिनके शिखर पर हो रही रोशनी नाविकों को मंजिल तक पहुंचानें में मदद करती हैं, या फ़िर कोई इन्सान हो जो दिगन्तर बन हमें राह दिखाता इस जीवन के पथ पर…या फ़िर वह कोई वस्तु जो हमारी मंजिल के मध्य स्थिर होती है, और आसरा देती है, कि अब मंजिल दूर नही….तो ये है अपने अपने लाइट हाउस…..। लेकिन हम बात करेगें उन ऊंची इमारतों की जिनमें कोयला, लकड़ी, केरोसिन, खाद्य तेल, व्हेल के शरीर से प्राप्त तेल (वसा) गैस और विद्युत से तीव्र प्रकाश किया जाता था, और वह प्रकाश नाविकों का पथ प्रदर्शन करता था, तकनीक के विकास के साथ साथ प्रकाश स्तंभों से निकलने वाले प्रकाश की तीव्रता में भी गजब का इज़ाफ़ा हुआ, लेन्स आदि की मदद से प्रकाश को अत्यधिक तीव्रता से फ़ोकस किया जाता था,  ताकि नाविक अपनी नाव समुन्द्र के किनारे ला सकें, या फ़िर आगे का रास्ता तय कर सके। दरसल ये लाइट हाउस अपनी एक खासी पहचान रखते है, आकार, ऊंचाई, तीव्र रोशनी के जलने-बुझनें के मध्य का अन्तर, और दिन के समय प्रत्येक लाइट हाउस पर किया गया रंग-रोगन नाविकों को यह जानने में मदद करता है, कि यह लाइट हाउस कौन सा है, यानि नाविक कहां पर है, और यदि वह यहां से आगे जाना चाहे तो कितनी दूरी पर अगला स्थान मौजूद इसका अन्दाजा लगया जा सकता था।

शताब्दियों से यह लाइट हाउस लोगों को राह दिखाते आयें, आधुनिक विज्ञान में राडार आदि प्रणालियों से इन लाइट हाउसों का महत्व अवश्य कम हुआ है पर यह अनुपयोगी नही है, नतीजतन भारत सरकार का डाइरेक्टोरेट जनरल ऑफ़ लाइट हाउसेज एण्ड लाइट सिप्स संस्था स्थापित हैं, जिसके द्वारा सभी लाइट हाउस एंव लाइट सिप्स का नियन्त्रण व देखभाल की जाती हैं। विभिन्न देशों में इसका अपना-अपना महत्व हैं।

अमेरिका में लाइट हाउस के प्रति जो स्नेह है वह शौक के रूप में तब्दील हो चुका है, वहां प्रकाश स्तंभों के सरंक्षण व अध्ययन के लिए तमाम संस्थायें व कल्ब स्थापित किए जा चुके हैं, और लोग लाइट हाउसों का भ्रमण व अध्ययन करते है इस भावना के साथ कि कभी उनके पूर्वजों को इन्ही प्रकाश स्तंभों ने राह दिखाई होगी, तब उन्होंने अमेरिका की धरती पर पहली बार कदम रखा होगा। चूंकि अमेरिकी महाद्वीप पर अत्यधिक लोग योरोप, अफ़्रीका और एशिया से आकर अपनी अपनी कालोनी बसाई, और उस वक्त समुन्द्री मार्गों से ही यी आवागमन हुए जिनमें ये लाइट हाउस ही उन्हे राह दिखाते थे,  किनारे पहुंचाते थे, और उनका इस धरती पर पहला इस्तकबाल भी इन्ही प्रकाश स्तंभों ने ही किया था।   यही वजह है कि अमेरिकी इन प्रकाश स्तभों के प्रति अगाध प्रेम रखते है, और इनमें अपने पूर्वजों के प्रथम आगमन का स्मरण करते हैं।

कहा जाता है दुनिया का पहला लाइट हाउस अलेक्जेन्ड्रिया में स्थित है, जिसे इजिप्ट के शासक टाल्मी द्वितीय ने तीसरी शताब्दी में बनवाया था। कई शताब्दियों तक यह दुनिया की सबसे ऊंची इमारत का दर्जा हासिल रहा, और पुरानी दुनिया में इसे सात अजूबों में से एक माना जाता था। भारत में सर्वप्रथम  तमिल साहित्य “सिलाप्पाडिगरम” में मिलता है, कावेरीपट्टिनम में एक खूबसूरत प्रकाश स्तंभ का उल्लेख। भारत में स्बसे प्राचीन व सक्रिय प्रकाश स्तंभ फ़ाल्स पाइन्ट उड़ीसा में है। भारत की समुन्द्री सीमायें सात जनपदों के अन्तर्गत हैं, मुम्बई, कोची, चेन्नई, विशाखापट्टनम, कोलकाता और पोर्ट ब्लेयर। इस समुन्द्री सीमा की ल० 7517 कि०मी० हैं। भारत सरकार के जहाजरानी मन्त्रालय नें पर्यटन के दृष्टिकोण से 13 प्रकाश स्तंभों को विरासत के रूप में सरंक्षित किया जायेगा जिसमें 300 करोड़ रूपयें की अनुमानित राशि खर्च की जायेगी।

इन प्रकाश स्तंभों के साथ जो मानव-निर्मित हैं, के अतिरिक्त हमें उन प्रकाश स्तंभों को भी कभी नही भूलना चाहिए जो सदियों से यूं ही हमे राह दिखाते आ रहे है, अडिग, अनवरत, फ़िर चाहे वह उर्जा का केन्द्र सूर्य हो जो पूरब-पश्चिम का भान कराता है, या सुबह पूर्व दिशा में उगने वाला शुक्र तारा, जो सुबह की दस्तक की खबर के साथ पूरब दिशा को बतलाता है। ये चाद सितारे, प्रकृतिक सरंचनायें, और पूर्वजों से प्राप्त बोध हमें जीवन के पथ पर अनवरत चलते रहने की प्रेरणा देता है और हमारे साथ साथ चलता है पथ-प्रदर्शक के रूप में…हमें अपने-अपने इन लाइट हाउसों को विस्मृत नही होने देना है, क्योंकि ये हमें हर पल राह बतलाते के साथ-साथ हमारे भीतर को भी दैदीप्तिमान करते है।

….तो आप ने सोचा कि आप का लाइट हाउस कौन है?

भारत के प्रकाश स्तंभों के बावत जानकारी हासिल करने के लिए यहाँ क्लिक करें।

कृष्ण कुमार मिश्र

मैनहन हाउस

77, कैनाल रोड शिवकालोनी लखीमपुर-खीरी-262701

भारत

फ़ोटो क्रेडिट: flowersofindia.netअब सुगन्ध व फ़ूलों पर रईसों की बपौती नही रहनी चाहिए!

बात फ़ूलों की करना चाह्ता हूं, चूंकि मसला खूबसूरती और खुशबुओं का है तो थोड़ा हिचक रहा हूं! प्रकृति की अतुलनीय सुन्दरता का बखान करना वर्तमान में मुश्किल और पिछड़ेपन की निशानी है..इन महान साहित्य पुरोधाओं के मध्य…क्योंकि वह समाज की गन्दगी जो उनकी नज़र में पहले से मौजूद है, रिस्तों की कड़वाहट जो उनके घरों में विद्यमान है…दुखों, करूणाओं और प्रेम के तमाम विद्रूप आकार-प्रकारों को (जो उनके मन शाम-सबेरे हर वक्त उपजते रहते हैं) बेचते ये बुद्धि-विद्या के स्वयंभू अब प्रकृति की बात करने में शर्मसार होते है..कारण स्पष्ट है कि रेलवे स्टेशनों, बसड्डों  के बुक स्टाल्स पर प्रकृति  प्रेम नही तलाशा जाता..!.. और राजिनीतिक गलियारों में वोट और गोट की जगह प्रकृति समा ही नही सकती!…फ़िर कौन बेवकूफ़ इन्हे फ़ूल, पत्तियों पर लेखन के लिए पुरस्कृत कर देगा! खैर..मैं लिए चलता हूं कालीदास और उस दौर के…. प्रकृतिकारों का नाम भूल रहा हूं!!!!…..  जब सरोवरों में कमल-कमलिनियां पुष्पित होते थे और राज-कन्यायें उनमें स्नान करने आया करती थी…तो घोड़े पर सवार राज-पुरूषों के घोड़ो को अक्सर उन्ही सरोवरों पर पानी पिलाना आवश्यक होता था !! महलों और बगीचों में युनान,  मंगोलिया, अरब देशो से लाये गये वृक्षों, झाड़ियों, और लताओं की सुनहरी छटाओं का जिक्र रामायण काल से लेकर राज महलों व बौद्ध मठों तक विस्तारित था! मुगलों ने भी दुनियाभर से प्रकृति के विविध रूपों को अपने बगीचों में खूब इकट्ठा किया….फ़ुलवारियों के रूप में!…हाँ हमें अंग्रेजों को कतई नही भूलना हैं जिन्होंने दुनिया में मौजूद अपने सामराज्य के प्रत्येक भू-भाग पर उगने वाली सुन्दरता को भारत में रचा-बसा दिया जिसकी कुछ झलके अभी भी कुछ सरकारी आवासों में दिखाई दे जाती हैं!…मैं आप को याद दिला दूं एडविन लैंडसीयर लुटियन की जिसने नई दिल्ली का निर्माण किया और गवर्नर हाउस, रायसीना हिल जैसी जगहों को प्रकृति के इन रंगो से सरोबार….!! भारत के वन विभाग के पुराने डाक बंग्लों में कुछ योरोपीय व अफ़्रीकी वनस्पतियां अभी भी मिल जायेंगी जिन्हे ये अंग्रेज सुन्दरता और सुगन्ध के लिए इन जगहों पर लगाया था!….एक बात कहना चाहूंगा कि धरती पर कोई प्रजाति देशी-विदेशी नही होती…बशर्ते उसे धरती का वह हिस्सा उस प्रजाति को अपना ले…..! अब भूमिका शायद लम्बी व निरर्थक हो रही तो चलिए आप को ले चलते है उत्तर भारत के मैनहन ग्राम में जहा सरोवर भी है और आम-जामुन व पलाश के बगीचे भी जो धीरे-धीरे पतन की राह पर अग्रसर किए जा रहे हैं! १९८०-९० के भारत में बचपन में मैनें उन्ही गांवों में फ़ुलवारियां देखी जहां कोई मन्दिर मौजूद हुआ और उसके आस-पास पुजारी प्रवृत्ति के लोग…उन्हे रोज जो भगवान को पुष्प अर्पित करने होते थे! सो पुष्प की उप्लब्धता की व्यवस्था इन फ़ुलवारियों के रूप में होती ्थी! नही तो पुष्प व पुष्प-वाटिकायें आदि भारत में राजा-महराजाओं, मध्य भारत में नवाबों और माडर्न ईंडिया में अफ़सरों का विषय ही रहे, एक आम व औसत हिन्दुस्तानी रोटी के जुगाड़ में ही दिन काट रहा होता था उसे तो पेट भरने के लिए रोटी की सुगन्ध ही दरकार रही बेचारा पुष्प और उनकी खुशबुओं से बावस्ता हो इसका न तो उसे कभी मौका मिला और न ही खयाल आ पाया। हाँ इतिहास के पन्नों में जमींदारों और राजाओं की जो फ़ुलवारियां हुआ करती थी उनमें न तो आम हिन्दुस्तानी को जाने की इजाजत थी और न ही उस फ़ुलवारी के किसी पौधें का बीज या कलम किसी अन्य को मिल सकती थी..कारण स्पष्ट था कि आम हिन्दुस्तानी के घरों में पुष्प खिला तो उन जमींदार महाशय के रसूख में धब्बा लग जायेगा….एक वाकया याद आ गया है सुन ले….मेरे जनपद की तहसील मोहम्मदी जो कभी बरतानिया सरकार में  जिला होने का गौरव रख चुका है, वहां दिल्ली सरकार (मुगल) के समय डिप्टी कमिश्नर टाइप की हैसियत से रहने वाले जनाब ने एक बगीचा लगाया था उसमें केतकी (केवड़ा) का पुष्प कहीं से लाया गया, जो इस इलाके भर में अदभुत व अप्राप्त वनस्पति वन कर सैकड़ों सालों तक गौरवान्वित होता रहा…आम हिन्दुस्तानी जिसकी आज भी आदत क्या खून में यह पैबस्त है कि राजा के घर की घास-पूस भी कुछ अतुलनीयता अवश्य रखती है…और वह मूर्ख उस सामान्य बात या वस्तु को असमान्य ढंग से पेश करता हुआ अपने को गौरवान्वित करता आया है….हाँ तो वह साधारण सा केवड़ा केतकी वन सिर उसी बाग में खिलता रहा और हमारे लोग यहाँ तक की मीडिया गौरवगीत गा गा कर भरार्ने लगा….लेकिन सिलसिला नही टूटा….आदत में है जो…..कभी भारत की विविधिता का खयाल भी नही किया कि जहां हर देवता के सहस्र नाम हो, जहं की भाषा पर्यावाचियों से लबलब ठसी हुई हो..जहां एक कोश पर चीजों के नाम बदल जाते हों…इस बारे में भी नही सोचा…..बस केतकी जो वर्ष में एक बार  खिलती है!….दुनिया में सिर्फ़ मोहम्मदी में…संसार में नही होती…फ़लाने हसन द्वारा लाई गयी..केतकी….यह डाकूमेन्टेशन है हमारे मुल्क में…..बहुत जल्दी जहां चीजे बिना सोचे समझे अदभुत हो जाती है…और सरकार व पढ़े लिखे लोग उसे पढ़ते जाते है…बिना सोचे…जाने….साल दर साल केतकी खिलती रही….अभी भी खिलती है…….पूरे संसार में सिर खीरी जिले को यह गौरव प्राप्त है…..आखिर फ़िर वह लाये कहां से थे इस केतकी को?..जब संसार में सिर्फ़…..मजा तो तब आया जब मेरे एक परिचित बुजर्ग ने गर्जना करते हुए मुझसे कहा कि केतकी उनके यहां खिला…..उनकी गर्जना में सदियों से गुलाम रहे हिन्दुस्तानी के भीतर चेतना व आत्म-गौरव का झरना स्फ़ुटित हो रहा था…जैसे वह तोड़ देना चाहते हो उन जंजीरों को जो सिर्फ़ यही कहती हो कि यह पुष्प सिर्फ़ राजा या नवाब के बगीचे में खिलता हो….उन्हे मैं सलाम करता हूं उनके इस जज्बे के लिए….काश…

दरसल वो कही से केतकी का सम्पूर्ण पौधा लाये और उसे रोप दिया…इसमें एक टेक्निकल मामला है, मोहम्मदी वाले केतकी का पौधा जमींदारी रहते तो आम आदमी को अपने घर लगाने की गुस्ताखी नही कर सकता था, लेकिन आजादी के बाद उसने जरूर प्रयास किए..किन्तु इस प्रजाति में नर व मादा पौधे अलग-अलग होते हैम..इसलिए जिसने भी एक पौध उखाड़ कर अपने घरों में लगाई तो नर व मादा में से एक की अनुपस्थिति उसमे पुष्पं के पल्लवन में बाधक बनी रही अंतत: यह मान लिया गया कि यह पौधा उसी बाग में खिल सकता है….नवाब साहब …के बाग …कोई कहता वह पौधे के साथ उस जगह से मिट्टी भी लाये थे..इसीलिए यह उसी बगीचे में खिल सकता है!….या कोई कहता भाई आदमी आदमी की बात होती है, उसके हाथों में…..जस!

खैर अब चलिए मैनहन में जहाँ मैने अपने पूर्वजों के घर के पुनर्निर्माण के साथ-साथ दुआरे पर फ़ुलवारी की परिकल्पना पर काम कर रहा हूं..आखिर आजाद भारत का बाशिन्दा हूं और फ़िजाओं में खुसबूं और सुन्दरता तलाशने का मुझे पूरा हक है! तो मैने पहले चरण में…हरसिंगार, चम्पा, चमेली, रात के रानी, अलमान्डा, बेला, मालती,  के पौधे रोपे हैं, दूसरे चरण में मैं गन्धराज, मौलश्री, जूही, कचनार, बेल का रोपन करूंगा, साथ ही बरगद, सागौन जैसे विशाल वृक्ष भी मेरी कार में सुसज्जित है….जिन्हे कल रोपित किया जायेगा….फ़िलहाल मेरा अगला कदम गाँव के हर व्यक्ति कों तमाम खुशबुओं वाले पौधें भेट करने का निश्चय है!…लेकिन क्रमबृद्ध तरीके से…शायद रात की रानी मिशन…बेला…..चमेली….या फ़िर गन्धराज मिशन…एक वर्ष में प्रत्येक  सगन्ध पुष्प वालें पौधों  में एक सुगन्धित पौधा. वितरित करूंगा..जो हर घर में पल्ल्वित हो…..इसी इरादे के साथ.. पुष्पवाटिकाओं के चलन की शुरूवात करने की कोशिश…शायद रिषियों, और राज-कन्याओं और राज-पुरूषों के शैरगाह की जगहें आम हो सके आम आदमी के मध्य…जमींदारों, नवाबों और नौकरशाहों के बगीचों का मान तोड़ती ये पुष्पवाटिकायें एक औसत हिन्दुस्तानी को अपनी परेशानियों व तंगहालियों की गन्ध के मध्य विविध सुगन्धों का एहसास करा सके…और सुगन्धों व नवाबों के मध्य रिस्तों का मिथक टूट पाये….!

कृष्ण कुमा्र मिश्र

मैनहन-262727

भारतवर्ष

कृष्ण कुमार मिश्र* बरवर का ध्वस्त साम्राज्य- जो बाछिलों के गौरवशाली अतीत का प्रतीक है

महाभारत काल की प्रसिद्ध विराटपुरी खीरी जनपद के बड़खर को कहां जाता है जहॉं आज भी प्राचीन मूर्तियां, शिवलिंग व ध्वंशावशेष मिलते हैं। मध्य भारत के बाछिल रजवाड़े जो खीरी, पीलीभीत जनपदों पर काबिज थे इन राजाओं की सत्ता का मुख्य केन्द्र था बड़खर जहॉं विशाल किला निर्मित था इनके अन्य सत्ता केन्द्र थे निगोही-शाहजहॉंपुर, दीवाल-पीलीभीत और कैम्प शारदा-खीरी जहॉं से ये अपनी प्रशासनिक कारगुजारियां संचालित करते थे। इसी वक्त का एक भव्य किला था बरवर में वह जगह अब दिलावर नगर के नाम से जानी जाती है। सबसे खास बात यह है कि ये बाछिल क्षत्रिय अपने आप को पौराणिक राजा वेंना का वंशज कहते थे जो महाभारतकालीन राजा विराट के पिता थे। इन बाछिलों का जिक्र एतिहासिक दस्तावेजों में सन 992 ईस्वी तक का ही इतिहास प्राप्य है जब ये खीरी के पश्चिम में पीलीभीत तक अपना साम्राज्य विस्तारित किये हुए थे किन्तु 992 ईस्वी से लेकर सन 1600 ईस्वी तक के मध्य का इतिहास अस्पष्ट है शताब्दियों से शासन कर रहे बाछिल तुगलकशाह व फिरोजशाह की हुकूमत में थोड़ा बहुत अवश्य विचलित किये गये लेकिन शहजहॉं का शासनकाल आते-आते खीरी पर पूर्ण रूप स बाछिलों का आधिपत्य हो चुका था जिसमें धौरहरा, निघासन, भूड़, खैरीगड़ स्टेट (आज का दुधवा नेशनल पार्क) इलाके इनके आधिपत्य में थे पौराणिक राजा विराट के बाद यदि कोई बाछिल राजा महत्व पा सका है तो वह बरवर का  बाछिल राजा छिप्पी खान था असल में छिप्पी खान इस राजा का असली नाम नही था यह नाम तो दिल्ली सरकार द्वारा दी गयी एक उपाधि थी इसके पीछे भी एक दिलचस्प कहानी है- एक बार कर्रा मानिकपुर में दिल्ली सरकार के विरूद्ध विद्रोह भड़क उठा जिसे कुचलने के लिए शाहजहॉं ने बरवर के बाछिल राजा को भेजा और इस व्यक्ति ने बड़ी बर्बरता  से विद्रोह को कुचला यह राजा कत्ल-ए-आम में माहिर व भयानक कृत्य करता था जिससे इसकी पोशाक रक्त के छींटों से (छीप) रंग जाती थी इन्ही छींटों के कारण यह व्यक्ति दिल्ली राज में व जनमानस में छिप्पी खान के नाम से जाना गया। कहा जाता है कि इस व्यक्ति ने एक-एक विद्रोही के सिर धड़ से अलग किये और तलवार से उनके धड़ों को क्षत-विक्षत कर दिया इस युद्ध में बाछिल राजा की रक्तरजिंत तलवार व रक्त से सने कपड़ो को देखकर शाहजहॉं ने इस योद्धा को छिप्पी खान की उपाधि से नवाजा। इसके बाद छिप्पी खान ने अपने अधिकार में अन्य जागीरें भी शमिल की, एक विशाल जागीर का मालिक बन जाने पर इस राजा के मन में खैराबाद सरकार (दिल्ली सरकार की एक कमिश्नरी) से नाता तोड़ने का खयाल आ गया ताकि वह इस समृद्ध रियासत पर स्वन्तंत्र हुकूमत कर सके इस कारण इसने चौका नदी के घनें जंगलो के मध्य अपना अभेद्यय दुर्ग बनवाया और यहीं से सत्ता का संचालन करने लगा अब तक दिल्ली पर शाहजहॉं का राज खत्म हो चुका था और उसका बेटा औरंगजेब अपने पिता शाहजहॉं को सत्ताच्युत करके खुदमुख्तार बन गया था उसने छिप्पी खान पर कुपित होकर राजपूताना (राजस्थान) के चौहान राजा छत्रभोज को छिप्पी खान को रियासत से बेदखल कर देने का हुख्म जारी कर दिया छत्रभोज ने शाही सेनाओं के साथ बाछिलो के साम्राज्य पर हमला बोल दिया और छिप्पी खान को गिरफ्तार कर लिया इस लड़ाई में छत्रभोज की सेनाओं नें छिप्पी खान के किलों को भी ध्वस्त कर दिया छिप्पी खान को 18 महीनों तक रखा गया और फिर तलवार से उसका सर कलम करने का फरमान जारी किया गया छिप्पी खान की हत्या के बाद  पिहानी के सैयदांे नें छिप्पी खान के सत्ता के हेडक्वार्टर बरवर पर अपना अधिकार कर लिया बाछिल राजा छिप्पी खान के 11 भाई थे जिनमें दिल्ली सरकार के प्रति बहुत आक्रोश था उन्होने बगावत भी की पर वह अपना छिना हुआ साम्राज्य कभी वापस न ले पाए अंततः वह डाकुओं की तरह जीवन यापन करने लगे इनमें से एक भगवन्त सिंह नामीं डाकू हुआ जिसका खौफ कठना नदी के जंगलों में इस कदर था कि अंग्रेज इन्तजामियां भी इससे डरती थी।

बाछिल राजा छिप्पी खान का वह विशाल किला खण्डहर के रूप में आज भी विद्यमान है बरवर का यह किला जो बाद सैयद राजा मुक्तदी खान जो गोपामऊ के गर्वनर रहे मुर्तजा खान का पोता था, ने अपने कब्जे में ले लिया अब बाछिलों की यह जागीर सैयदों के पास आ गयी थी, यह रियासत सैयद मुर्तजा खान को दिल्ली सरकार ने मालगुजारी से मुक्त (रेन्ट फ्री) कर के दी थी मुक्तदी खान बरवर चतुष्कणीय विशाल किले का निर्माण कराया इसके अलावा बाछिलो के पुरानें किले पर भी निर्माण कार्य कराए गये, आज दिलावर नगर का यह किला अपने वैभवकाल का प्रतीक चिन्ह है इस विशाल दुर्ग का मुख्य दुर्गद्वार अभी भी मौजूद है। सैयदों की शासन व्यवस्था में निर्मित शाही हमाम, कुऑं, व अन्य छोटी इमारतें आज भी सुरक्षित हैं हांलाकि विशाल टीले पर बना यह दुर्ग विभिन्न प्रकार की झाड़ियों, जगली पुष्पों व जीव-जन्तुओं का बसेरा बन चुका है। लेकिन इन झाड़ियों में विलुप्त हो रही गौरैया अच्छी सख्या में दिखायी दी यह बात पंक्षी प्रेमियों के लिए अवश्य सुखद होगी, स्थानीय ग्रामीणों के मुताबिक यहॉं अक्सर लोग खजानें की तलाश में आते हैं और जगह-जगह पर खुदायी करते हैं इस बात के प्रमाण के तौर पर कई स्थानों पर गडढे मौजूद हैं।

सैयद राजवंश के वर्तमान वारिस नवाब सैयद आरिफ हुसैन ने बताया कि उनके ही खानदान के एक शख्स जो सूफी थे जिनका नाम नवाब अली रजा था इन्होने विवाह नही किया और जीवन पर्यन्त दिलावर नगर के प्राचीन बाछिलों के किले में रहे उनकी मजार भी इसी किले के भीतर ही बनवायी गयी स्थानीय लोग इस मजार पर सजदा करते है नवाब आरिफ हुसैन इस किले को सूफी नवाब अली रजा़ की स्मृति में एक धार्मिक स्थल के रूप में विकसित करना चाहते हैं। मोहम्मदी निवासी फज़लुर रहमान ने बताया कि अब इस स्थान पर लोगो का अतिक्रमण बढ़ रहा है साथ ही साथ पास के साउथ खीरी फारेस्ट की जमीन पर भी लोगों की नजर है

बाछिलों का यह अतीत आज भी इस प्राचीन किले के रूप में सरक्षित है जो ग़दर के वक्त लगभग नष्ट कर दिया गया था बाछिलों के साथ-साथ ग्रेट सैयद फैमिली का रोचक इतिहास भी यह किला अपने में सजोंये हुए है दो संस्कृतियों की यह विरासत यदि पुरातत्व विभाग व स्थानीय इन्तजामिया द्वारा संरक्षित व विकसित न की गयी तो जल्द ही यह हजारों वर्ष का इतिहास गर्त में समा जाएगा और हमारी अगली पीढ़ी अपने इस अतीत से वंछित हो जाएगी हांलाकि यह वह वक्त था जब सत्ता को हासिल करने के लिए सारे वसूल व सम्बंधों को दरकिनार कर दिया जाता था और व्यक्ति सत्ता के लिए किसी का भी कत्ल व किसी से भी बगावत करने में नही चूकता था किन्तु अतीत अपना ही होता है चाहे वो कितना ही बुरा क्यों न हो और अतीत का संरक्षण व अध्ययन हमारे भविष्य का पथ प्रदर्शन में सहायक होता है।  इसलिए धूल की परतों की तरह विभिन्न सभ्यतायें एंव संस्कृतियों की परतों से युक्त हमारा इतिहास जिसे बड़ी जिम्मेंदारी व सावधानी से सहेजकर एक-एक परत का अनावरण कर उन संस्कृतियों को पढ़ना होगा ताकि हमारी बिखरी एतिहासिक कड़ियां आपस में जोड़ी जा सकें।

-कृष्ण कुमार मिश्र
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लेख/खबर आमंत्रित है कृपया dudhwalive@live.com पर भेजें।
संपादक/माडरेटर

-कृष्ण कुमार मिश्र

अफ़सोस की हमारे लोगों की उंगलियों के निशान ही गायब हैं।

गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों के लिए- राष्ट्रीय बीमा योजना।

(श्रम एंव नियोजन मंत्रालय, उत्तर प्रदेश सरकार एंव आई सी आई लोम्बार्ड द्वारा)

भारत की एक बड़ी आबादी जो अपनी उंगलियों के चिन्ह खो चुकी है ये वही चिन्ह है जो सरकारी कार्यों  में व्यक्ति के होने का प्रमाण होते है और भारत की एक आबादी के लिए ये निशान भाग्य की भाषा के शब्द जिनमें ज्योतिषी शंख व चक्र जैसी आकृतियों की बिनाह पर जजमान को उसके जीवन में राज-योग को सुनश्चित करते है,…….!

बात साल के आखिरी महीने के आखिरी दिन की है, जब मेरी ड्यूटी उत्तर प्रदेश के एक गाँव  में लगाई गयी, मसला एक प्राइवेट बीमा कम्पनी और भारत सरकार के साझे का था। तमाम अप्रशिक्षित नव-युवकों को ठेकेदारों ने तैनात किया था एक-एक पाइरेटेड माइक्रोसाफ़्ट विन्डोज वाले लैपटाप के साथ, ताकि वह गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की अंगुलियों के निशान स्कैन कर कम्प्यूटर के डेटावेस में सुरक्षित रख सके और बदले प्रत्येक गरीब से तीस रुपये की वसूली कर ले। एक मास्टर कार्ड मुझे भी दिया गया जिसमें मेरे अगूंठे का निशान सुरक्षित था और प्रत्येक व्यक्ति की अंगुलियों का निशान लेने के उपरान्त मुझे अपना अंगूठा स्कैनर पर रखना पड़ता ताकि उस व्यक्ति पहचान सुनिश्चित की जा सके, एक तरह का वेरीफ़िकेशन……..।

यहां मैं अपने लोगों की जिस जीर्ण-शीर्ण दशा से रूबरू हुआ उसके लिए शायद माकूल शब्द न प्रस्तुत कर पाऊं किन्तु मुझे किसी भी व्यक्ति की उंगलियों के निशान नही मिले जिन्हे स्कैन किया जा सके। गरीबी और शोषण की हर परिस्थिति ने उन्हे नोचा-घसोटा था, कहते हैं, आदमी के हाथो की लकीरे उसका भूत-भविष्य बताती है, तो यकीनन उनके हाथ मुझे उनका भूत-भविष्य और वर्तमान सभी कुछ बता रहे थे, जिसे कोई ज्योतिषी कभी नही पढ़ सकता था, क्योंकि लकीरे नदारत थी उनके हाथों से अगर कुछ था तो समय की मार के चिन्ह फ़टी हुई मोटी व भद्दी हो चुकी बिना रक्त की खाल जो हथेलियों के बचे हुए सख्त मांस व हड्डियों पर चढ़ी भर थीं। जिसे प्रबुद्ध जन कर्म-योग कहते है तो उसकी प्रतिमूर्ति थे,  इस मुल्क के अनियोजित विकास को ढ़ोने में इनके हाथों पर चढ़ी हुई कालिख हमें बता रही थी कि कैसे नगरीय सभ्यता के संभ्रान्त लोगों की तमाम अयास्सियों का भार यह अन्न-दाता ढ़ो रहा है।  लोगों के धूप व मौसम की तल्खियों से बुझे हुए चेहरे और थका हुआ शरीर जिसकी सख्त व काली हो चुकी खाल को फ़ौरी तौर पर देखकर कोई डाक्टर ये नही बता सकता था कि ये भयानक रक्त अल्पता की बीमारी से ग्रसित है, हाँ हमारे घरों की चारदीवारी के भीतर रहने वाली औरतों की त्वचा स्पष्ट जाहिर कर रही थी कि ये मात्र सूखे मांस और हड्डियों का कंकाल हैं और इस विद्रूप व रूग्ण शरीर की इज्जत इनकी पीली त्वचा जरूर ढ़क रही है।  कुछ-कुछ परदा कहानी के फ़टे हुए परदे की तरह ………………।

तकरीबन ९० फ़ीसदी परिवारों की यही दशा थी जिनमें स्त्री-पुरूषों की दोनों हाथों की सभी उंगलियों के सारे प्रयास निरर्थक हो जा रहे थे। किन्तु स्कैनर एक भी निशान नही खोज पा रहा था। आखिरकार  उनके बच्चों के निशानों को स्कैन कर दिया जाता, जिनके हाथ अभी इस तरूणायी में सुरक्षित थे और शायद तैयारी भी कर रहे थे, अपनी लकीरों के अस्तित्व को खोने के लिए भविष्य में, मानों यही नियति हो इन हाथों की। यदि  नियमों का पालन होता और परिवार के मुखिया के ही निशान स्कैन करने की कवायद की जाती तो शायद दो-चार कार्डों के सिवा ( जुगाड़ द्वारा बनवायें गये अमीरों द्वारा बीपीएल कार्ड धारकों ) सभी को खाली हाथ वापस जाना पड़ता। और उन्हे ये भी दुख होता कि दिन भर की मशक्क्त में दिहाड़ी भी गयी और कार्ड भी नही मिला।  लेकिन यहां एक सवाल उठता है कि ये कार्ड तो निरर्थक है क्योंकि परिवार के मुखिया के बजाय छोटे बच्चों की उंगलियों के निशान मौजूद है इन कार्डों में? तस्वीर किसी और की और उंगलियों के निशान किसी और के!  और कम्पनी द्वारा तैनात किए गये दैनिक वेतन-भोगियों को भी तो प्रति कार्ड पैसा मिलना था। जितने कार्ड उतना कमीशन। पर क्या कोई विकल्प था, जब गांव के सभी गरीबों के हाथों में तकदीर की रेखायें ही नदारद है। यही स्थित पूरे के पूरे जनपद में। कैसा विकास है यह! इससे बेहतर तो सूदखोरों का दौर था जब इन गरीबों की जमीनों को गिरवी रखते वक्त वह इनके अगूंठे का निशान तो पा जाते थे। यहां एक और स्थिति बनी जो मुझे शर्मसार करती थी बार-बार…..जब भी किसी की उंगलियों का निशान न मिले तो तकनीके खोजी जाय की सिर में अंगूठे को रगड़ों तो यह साफ़ भी हो जायेगा और बालों में लगे तेल से साफ़ व मुलायम भी, पर यहां किसी के सिर में चिकनाई की एक बूंद भी नही थी आखिर में कम्प्यूटर वाला लड़का अपने सिर से उस व्यक्ति का अंगूठा रगड़ता, यदि फ़िर भी काम नही चलता तो हार कर वह अपना अंगूठा रख देता स्कैनर पर, व्यक्ति और अंगूठा किसी और का,… पर  तो कभी कभी यह रगड़ने वाली युक्ति काम आ जाती, पर ज्यों ही मुझे उस व्यक्ति के अंगूठे के निशान को वेरीफ़ाई करने के लिए अपना अंगूठा स्कैनर पर रखता तो झट से कम्प्यूटर  वह निशान ले लेता और अपने नम्बर का इन्तज़ार कर रहे  लोगों में एक खुशी की लहर दौड़ जाती कि अरे साहब का की उंगलियों के निशान कितने सुन्दर आ रहे है, झट से…….ले ले रहा है। और यही वह मौका होता जब मेरी गर्दन शर्म से झुक जाती, मुझे सिर्फ़ यही एहसास होता कि ये हमारे लोग है और मैं इन्ही का एक हिस्सा हूं, बिना रेखाओं वाली हथेलियों के मध्य  मेरी हथेली की भाग्य रेखायें मुझ पर मुस्करा रही थी……एक व्यंगात्मक हंसी!

मैं आमंत्रित करता हूं उन सभी भद्र जनों को जो ये हाल देखना चाहते अपने सो-काल्ड विकास का वो उत्तर भारत के किसी गांव में आये और कोशिश कर ले, अंगूठों के निशान पाने की वहा एक काले ठप्पे के सिवा कुछ नही मिलेगा।  जिन्हे ये गरीब या गरीबी रेखा के नीचे, टाइप के वाक्यों से संबोधित करते है।

भयानक ठण्ड और सर्वहारा की उत्सुक भीड़, मुझे बार-बार उनके कुछ पा लेने की लालसा लिए चेहरों में झाकने को विवश करती और मैं उन्हे ठगा हुआ सा पाता। दिन में बमुश्किल तीस ही  रुपया कमाने वाला व्यक्ति जिस पर सारे परिवार की रोटी की जिम्मेदारी हो वह अपने दिन की पूरी कमाई लिए उत्सुक खड़ा था बीमा कार्ड बनवाने के लिए! यहां यह बता देना जरूरी है कि बीमित व्यक्ति की कम से कम दो उंगलियों के निशान और उसके परिवार के किसी अन्य वयस्क सदस्य के निशान लेना जरूरी था। इसके बदले उस परिवार के मुखिया को एक प्लास्टिक कार्ड मिलना था जिसमें उसके अगूंठे और उंगलियों के निशान कैद थे, ताकि जब वह बीमार हो तो उस कम्पनी द्वारा निर्धारित सेन्टर पर जा कर उस कार्ड से अपनी पहचान करा सके कि असल व्यक्ति वही है। हाँ बीमा कम्पनी की शर्ते भी सुन लीजिये, यदि मरीज भर्ती होने की स्थित में नही है तो, नशा आदि के कारण बीमार हुआ है तो, महिला गर्भवती है तो,  इस बारे में भी कुछ स्पष्ट नही है कि सर्प आदि ने काट लिया है तो, और प्राकृतिक आपदा हुई है तो वह बीमित राशि ३०,००० रुपये का लाभ नही पा सकता। हाँ बड़ी खामी यह कि यदि किसी परिवार के मुखिया न हो, यानी माँ-बाप की मृत्यु हो गयी हो तो अव्यस्क बच्चों के लिए यह बीमा नही हो सकता……..। जिस कुपोषण में महिलायें सिर्फ़ बीमार बच्चों को जन्म देती है वहां इस बीमा की शर्तों के अनुसार किसी जन्म-जात बीमारी का इलाज की सुविधा नही। फ़िर आप बतायें हमारे गांव के आदमी का कौन सा विमान क्रैश या कार दुर्घटनाओं से साबिका पड़ता है जो वह इस बीमित राशि का लाभ ले पायेगा?

गांवों में तो लोग अक्सर भांग-गांजा या बीड़ी आदि के कारण ही दमें आदि बीमारियों से ग्रसित होते है और प्राकृतिक आपदायें ही उनका सर्वस्व नष्ट कर देती है। और वैसे भी वह भर्ती होने वाली दशा तक अस्पताल नही पंहुच पाते है क्योंकि उनका प्राथमिक इलाज़ ही नही हो पाता जो वह भर्ती प्रक्रिया तक अपना दम साधे रहे।

हल्की बीमारी में यह कम्पनी बीमित राशि का लाभ नही देती। एक बात और ये लोग इतने भी सक्षम नही होते कि उन सेन्टरों तक पंहुच कर अपनी बात रख सके फ़िर आखिर ये तमाशा क्यों क्या उस कम्पनी और सरकारों को उनकी हाड़ तोड़ मेहनत के तीस रुपये भर लेने है। अरबो की आबादी वाले प्रदेश व देश के अरबों गरीब लोगों तीस-तीस रुपये का कर! जो खरबों की राशि में इकठ्ठा हो जायेगा। यह सवाल इस लिए और जरूरी हो जाता है कि सरकार द्वारा स्थापित प्राथमिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर मौजूद मुफ़्त सेवायें ही इन्हे नसीब नही होती तो फ़िर ये कवायद क्यों!

अपने लोगों की बदहाली के सैकड़ों कारण तो मुझे याद आ रहे है किन्तु बिगड़े हुए इन भयानक हालातों में कौन सी जुगति इन्हे उबार लेगी ये बात अब मेरे मस्तिष्क से परे है……मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हूँ।

यहां प्रश्न ये नही है बीमा कम्पनी से इन्हे लाभ मिलेगा या नही या यह योजना उचित या अनुचित है यहाँ एक भारी प्रश्न तो यह है, उन लोगो के लिए जो दम भरते है विकास है, ताकि वह देखे और सोचे कि हमारे देश का एक हिस्सा जो बद से बदतर हो रहा है, कही अतीत में उसे बेहतर कहा जा सकता है आज की इस विद्रूपता को देखकर।

तकदीर तो उनकी भी होती है जिनके हाथ नही होते। ये शेर कह कर मैं रूमानी नही होना चाहता और न ही अपने आप को और उनको झूठी तसल्ली।

क्या हमारा दरिद्र नारायण हमेशा ऐसी दुर्गति के साथ जीता रहेगा। एक भारत में इतनी असमानता क्या यही विविधिता है जिस पर बड़े बुद्धिजीवी गर्व करते है।

कृष्ण कुमार मिश्र

(वन्य-जीव विशेषज्ञ, स्वतन्त्र पत्रकारिता, फ़ोटोग्राफ़ी)